सेवा शब्द का अर्थ है - 'आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा।' अपने स्वामी की आज्ञापालन करना - इसी का नाम सेवा है।
इस बात को नोट कर लो, भगवत्प्राप्ति के बाद तक काम आएगा - अपनी इच्छानुसार काम करना, ये स्वामी की सेवा नहीं है - ये तो अपनी सेवा हुई। सेवा का मतलब है स्वामी को सुख देना, स्वामी की रुचि में रुचि रखना, स्वामी की आज्ञा का पालन करना। उदाहरण के लिए अगर स्वामी ने हमसे कहा - "हमारे पास से चले जाओ!", तो तुरंत वहाँ से सहर्ष चले जाओ, मूड ऑफ़ करके नहीं। ये सोचो कि, "मुझे उनको सुख देना है। मेरे हट जाने से उनको सुख मिलेगा।"
तो सेवा तीन प्रकार की होती है - चेतस्तत् प्रवणं सेवा। तत् सिद्ध्यै तनु-वित्तजा।
- चेतस्तत् प्रवणं सेवा - मनुजा - मन से सेवा करना - जब तक भगवान् नहीं मिलेंगे, तब तक हम ध्यान करेंगे। आँख बंद करके मन से सोचा श्यामसुंदर सामने खड़े हैं, अब हम उनको नहला रहे हैं, अब उनके शरीर को पोंछ रहे हैं, अब उनको कपड़े पहना रहे हैं, अब उनको खाना खिला रहे हैं आदि, सब मन से करेंगे। ये मन से जो सेवा करते हैं, इसे मानसी सेवा कहते हैं और ये लिखी जाएगी उसी प्रकार जैसे गोलोक में भक्त सेवा करते हैं। ये सबसे श्रेष्ठ सेवा है।
और तत् सिद्ध्यै - जब तक भगवत्प्राप्ति नहीं होती, तो उसकी सिद्धि के लिए - - तनुजा - शरीर से सेवा करना। भगवान् के मंदिर में मूर्ति की सेवा। अथवा अगर कोई संत मिल जाएँ, वो भगवान् के दूसरे रूप हैं, उनकी शरीर से सेवा करना।
- वित्तजा- धन से सेवा करना। हमारे पास जो कुछ धन है वो सब भगवान् का है। इसलिए उस धन को उनकी सेवा में लगाना है। हमारा अधिकार उतने ही धन पर है जितने में हमारा शरीर का पालन पोषण हो जाए। इससे अधिक अगर कोई अपने पास धन रखता है तो वो चोर माना जायेगा और उसको दंड मिलता है - यावत् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्। अगर धन नहीं है तो कोई दंड नहीं मिलेगा। अगर किसी के पास दस रुपए हैं और उसका उसने दान कर दिया तो वो एक अरबपति का अरब रुपए दान करने के बराबर दान माना जायेगा, क्योंकि दोनों ने अपना सब कुछ दे दिया ।
लेकिन मन, तन और धन तीनों सेवा स्वामी की इच्छानुसार होनी चाहिए, अपनी इच्छानुसार नहीं। जो स्वामी से कुछ मांगे वो दास नहीं है। स्वामी जो अपनी इच्छा से दे दें, वो ले लो। चूंकि स्वामी सर्वज्ञ हैं, इसलिए जो हमको आवश्यकता होगी वो देंगे। किसको क्या देने में क्या कल्याण है, किसके क्या चीज़ छीनने में कल्याण है, ये भगवान् जानते हैं । हमें अपनी बुद्धि नहीं लगानी चाहिए। उनकी हर क्रिया को कृपा समझो। कुछ आया तो भी कृपा, गया तो भी कृपा। सब कृपा है। अगर केवल आने-आने को कृपा मानेंगे तो जाने को कोप मानना पड़ेगा और ऐसे हम एक दिन नास्तिक हो जाएँगे। तो भगवान् और गुरु की इच्छा में इच्छा रखना, इसी का नाम शरणागति है, इसी का नाम है सेवा।
दो प्रकार की स्थिति की सेवा होती है -
- साधनावस्था की सेवा - जब तक दिव्य प्रेम नहीं मिलता, तब तक दिव्य भावना बनाकर सेवा की जाती है। जब तक भगवान् नहीं मिलते तब तक गुरु की सेवा की जाती है।
- सिद्धावस्था की सेवा - जब गोलोक जाते हैं तब गुरु और भगवान् दोनों वहाँ रहते हैं, तो भक्त वहाँ दोनों की सेवा करता है।
तो भक्त कहता है - "भुक्ति मुक्ति दोनों डाकिनी हैं, ये हम नहीं चाहते। हम केवल आपकी निष्काम भक्ति चाहते हैं, जिससे आपकी सेवा करके आपको सुख दे सकें।" ये हमारा लक्ष्य है।
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
Guru Seva - Hindi
Guru Sharanagati - Hindi
सेवा शब्द का अर्थ है - 'आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा।' अपने स्वामी की आज्ञापालन करना - इसी का नाम सेवा है।
इस बात को नोट कर लो, भगवत्प्राप्ति के बाद तक काम आएगा - अपनी इच्छानुसार काम करना, ये स्वामी की सेवा नहीं है - ये तो अपनी सेवा हुई। सेवा का मतलब है स्वामी को सुख देना, स्वामी की रुचि में रुचि रखना, स्वामी की आज्ञा का पालन करना। उदाहरण के लिए अगर स्वामी ने हमसे कहा - "हमारे पास से चले जाओ!", तो तुरंत वहाँ से सहर्ष चले जाओ, मूड ऑफ़ करके नहीं। ये सोचो कि, "मुझे उनको सुख देना है। मेरे हट जाने से उनको सुख मिलेगा।"
तो सेवा तीन प्रकार की होती है - चेतस्तत् प्रवणं सेवा। तत् सिद्ध्यै तनु-वित्तजा।
और तत् सिद्ध्यै - जब तक भगवत्प्राप्ति नहीं होती, तो उसकी सिद्धि के लिए -
लेकिन मन, तन और धन तीनों सेवा स्वामी की इच्छानुसार होनी चाहिए, अपनी इच्छानुसार नहीं। जो स्वामी से कुछ मांगे वो दास नहीं है। स्वामी जो अपनी इच्छा से दे दें, वो ले लो। चूंकि स्वामी सर्वज्ञ हैं, इसलिए जो हमको आवश्यकता होगी वो देंगे। किसको क्या देने में क्या कल्याण है, किसके क्या चीज़ छीनने में कल्याण है, ये भगवान् जानते हैं । हमें अपनी बुद्धि नहीं लगानी चाहिए। उनकी हर क्रिया को कृपा समझो। कुछ आया तो भी कृपा, गया तो भी कृपा। सब कृपा है। अगर केवल आने-आने को कृपा मानेंगे तो जाने को कोप मानना पड़ेगा और ऐसे हम एक दिन नास्तिक हो जाएँगे। तो भगवान् और गुरु की इच्छा में इच्छा रखना, इसी का नाम शरणागति है, इसी का नाम है सेवा।
दो प्रकार की स्थिति की सेवा होती है -
तो भक्त कहता है - "भुक्ति मुक्ति दोनों डाकिनी हैं, ये हम नहीं चाहते। हम केवल आपकी निष्काम भक्ति चाहते हैं, जिससे आपकी सेवा करके आपको सुख दे सकें।" ये हमारा लक्ष्य है।
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
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