लगातार सत्संग श्रद्धा पैदा कराएगा -
वैसे तो भगवत्प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम श्रद्धा परमावश्यक है, फिर सत्संग, फिर भक्ति। लेकिन प्रश्न ये है कि अगर किसी के पास श्रद्धा न हो, वो बेचारा क्या करे? उसके बिना वो चौरासी लाख में घूमा करेगा। उसके लिए भी कोई उपाय है क्या?
हाँ, उसके लिए संतों ने यह उपाय बताया है -
सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो.....श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति (भागवत)
अगर सत्संग ठीक-ठीक हो फिर तो सब ठीक ही है। लेकिन अगर सत्संग ठीक-ठीक न हो, तो भी अगर कोई सत्संग करता रहे, तो श्रद्धा की उत्पत्ति स्वयं होगी।
क्यों?
वो इसलिए है कि सत्संग में ये तत्त्व ज्ञान बताया जायेगा -
- आप कौन हैं?,
- आप किसके हैं ?,
- उनसे आपका क्या सम्बन्ध है?, और
- उनकी प्राप्ति कैसे होगी?
जब हमें इन चारों बातों का ज्ञान होगा तब हमें भूख लगेगी। हमको अपनी गलती समझ में आएगी, कि 'मैं बड़ा लापरवाह था और संसार में आनंद ढूँढ़ रहा था।' अब मालूम हुआ कि हम श्री कृष्ण के अंश/दास/शक्ति हैं। उनसे हमारे सारे नाते हैं (त्वमेव 'सर्वं' मम देव देव)। हमारा सम्बन्ध श्री कृष्ण से ही है। और कोई नाता किसी से है ही नहीं। सभी जीव भगवान् रूपी समुद्र की तरंगें हैं। इनका मिलन, यानी माँ-बाप-बेटा-स्त्री-पति आदि, टेम्पररी है। तरंग का तरंग से कोई सम्बन्ध नहीं है। लहर का समुद्र से सम्बन्ध पक्का है। हमारा काम श्री कृष्ण को प्राप्त करना है। तो सत्संग से हम अपनी गलती को सुधारने का प्रयत्न करेंगे, यानी भक्ति करेंगे। सारी गड़बड़ी, जो हमको दुःख मिल रहा है उसका मूल कारण है अज्ञान, यानी नासमझी - अज्ञानमेवास्य हि मूलकारणं (अध्यात्म रामायण)। बिना ज्ञान के संसार से वैराग्य नहीं हो सकता। और वास्तविक संत के सत्संग से ही ज्ञान मिलेगा, उनसे ही हमें सही-सही ज्ञान मिल पाएगा, जिससे संसार से वैराग्य धीरे-धीरे होने लगेगा। नकली सत्संग से कुछ नहीं मिलेगा - वो हमको कहेगा जप कर लो, चारों धाम घूम आओ, गंगोत्री का जल लेकर रामेश्वरम में चढ़ा दोगे तो मोक्ष मिलेगा आदि अंड बंड बातें ही बताएगा।
तो लगातार सत्संग करने से (अगर मन नहीं लग रहा फिर भी सत्संग में जाकर बैठें और सुनें) श्रद्धा पैदा हो जाएगी। प्रारम्भ में थोड़ा भी हो, लगातार सत्संग से - शनैः शनै: उपरमेत् - धीरे-धीरे गाड़ी 'सही दिशा' में चलेगी तो एक दिन पहुँच जाएगी। यही घुणाक्षर न्याय है - यानी चींटी भी लगातार चलती रहेगी तो एक दिन प्रयाग पहुँच जाएगी - होय घुणाक्षर न्याय जो पुनि प्रयोग अनेक।
पूर्व जन्म के योगभ्रष्ट साधकों को ही ऐसे होता है कि एक बार सत्संग सुनते ही तत्काल हरि-गुरु के शरणागत हो गए (उदाहरण के लिए तुलसीदास, सूरदास आदि)। बाकी लोगों को तो धीरे-धीरे चलकर ही काम बनेगा।
और जब श्रद्धा होगी, तब सत्संग और बढ़िया हो जायेगा। यानी लगातार सत्संग से श्रद्धा पैदा होगी और फिर श्रद्धा से सत्संग सही-सही होने लगेगा। फिर उससे भक्ति अपने आप होगी, अंतःकरण की शुद्धि हो जाएगी, हम अधिकारी बनेंगे और हमारा काम बन जायेगा। इसलिए श्रद्धा रहित को भी मार्ग है निराश कोई न हों।
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
Satsang - Hindi
Shraddha - Hindi
लगातार सत्संग श्रद्धा पैदा कराएगा -
वैसे तो भगवत्प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम श्रद्धा परमावश्यक है, फिर सत्संग, फिर भक्ति। लेकिन प्रश्न ये है कि अगर किसी के पास श्रद्धा न हो, वो बेचारा क्या करे? उसके बिना वो चौरासी लाख में घूमा करेगा। उसके लिए भी कोई उपाय है क्या?
हाँ, उसके लिए संतों ने यह उपाय बताया है -
सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो.....श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति (भागवत)
अगर सत्संग ठीक-ठीक हो फिर तो सब ठीक ही है। लेकिन अगर सत्संग ठीक-ठीक न हो, तो भी अगर कोई सत्संग करता रहे, तो श्रद्धा की उत्पत्ति स्वयं होगी।
क्यों?
वो इसलिए है कि सत्संग में ये तत्त्व ज्ञान बताया जायेगा -
जब हमें इन चारों बातों का ज्ञान होगा तब हमें भूख लगेगी। हमको अपनी गलती समझ में आएगी, कि 'मैं बड़ा लापरवाह था और संसार में आनंद ढूँढ़ रहा था।' अब मालूम हुआ कि हम श्री कृष्ण के अंश/दास/शक्ति हैं। उनसे हमारे सारे नाते हैं (त्वमेव 'सर्वं' मम देव देव)। हमारा सम्बन्ध श्री कृष्ण से ही है। और कोई नाता किसी से है ही नहीं। सभी जीव भगवान् रूपी समुद्र की तरंगें हैं। इनका मिलन, यानी माँ-बाप-बेटा-स्त्री-पति आदि, टेम्पररी है। तरंग का तरंग से कोई सम्बन्ध नहीं है। लहर का समुद्र से सम्बन्ध पक्का है। हमारा काम श्री कृष्ण को प्राप्त करना है। तो सत्संग से हम अपनी गलती को सुधारने का प्रयत्न करेंगे, यानी भक्ति करेंगे। सारी गड़बड़ी, जो हमको दुःख मिल रहा है उसका मूल कारण है अज्ञान, यानी नासमझी - अज्ञानमेवास्य हि मूलकारणं (अध्यात्म रामायण)। बिना ज्ञान के संसार से वैराग्य नहीं हो सकता। और वास्तविक संत के सत्संग से ही ज्ञान मिलेगा, उनसे ही हमें सही-सही ज्ञान मिल पाएगा, जिससे संसार से वैराग्य धीरे-धीरे होने लगेगा। नकली सत्संग से कुछ नहीं मिलेगा - वो हमको कहेगा जप कर लो, चारों धाम घूम आओ, गंगोत्री का जल लेकर रामेश्वरम में चढ़ा दोगे तो मोक्ष मिलेगा आदि अंड बंड बातें ही बताएगा।
तो लगातार सत्संग करने से (अगर मन नहीं लग रहा फिर भी सत्संग में जाकर बैठें और सुनें) श्रद्धा पैदा हो जाएगी। प्रारम्भ में थोड़ा भी हो, लगातार सत्संग से - शनैः शनै: उपरमेत् - धीरे-धीरे गाड़ी 'सही दिशा' में चलेगी तो एक दिन पहुँच जाएगी। यही घुणाक्षर न्याय है - यानी चींटी भी लगातार चलती रहेगी तो एक दिन प्रयाग पहुँच जाएगी - होय घुणाक्षर न्याय जो पुनि प्रयोग अनेक।
पूर्व जन्म के योगभ्रष्ट साधकों को ही ऐसे होता है कि एक बार सत्संग सुनते ही तत्काल हरि-गुरु के शरणागत हो गए (उदाहरण के लिए तुलसीदास, सूरदास आदि)। बाकी लोगों को तो धीरे-धीरे चलकर ही काम बनेगा।
और जब श्रद्धा होगी, तब सत्संग और बढ़िया हो जायेगा। यानी लगातार सत्संग से श्रद्धा पैदा होगी और फिर श्रद्धा से सत्संग सही-सही होने लगेगा। फिर उससे भक्ति अपने आप होगी, अंतःकरण की शुद्धि हो जाएगी, हम अधिकारी बनेंगे और हमारा काम बन जायेगा। इसलिए श्रद्धा रहित को भी मार्ग है निराश कोई न हों।
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