हर राह श्याम तक जाती है — बस मन को सही दिशा दिखानी है!
भगवान् का रूपध्यान ही प्रमुख साधना है, उसके साथ संकीर्तन आदि भी अच्छा है। लेकिन रूपध्यान करते समय एक समस्या आती है। भगवान् के स्थान पर पुराने अभ्यासवश जिसके मन का जहाँ पहले अधिक अटैचमेंट है मन वहाँ चला जाता है।
जब ऐसे बार बार होता है तो न क्रोध करना चाहिए, न निराश होना चाहिए। क्रोध से मन का पतन होता है, वह और अधिक बिगड़ जाता है। निराश होने पर भी साधना नहीं हो सकती (निरुत्साहस्य दीनस्य)। यह याद रखना चाहिये संसार में जितनी भी चीज़ हमने सीखी हैं, बहुत अभ्यास और गलतियां करने के बाद आयी हैं। दर्जा एक से लेकर बृहस्पति तक सब गलती करते हैं। कोई सर्वज्ञ नहीं है, यद्यपि मिथ्याभिमान के कारण हम लोग अपनी गलती नहीं मानते।
इसलिये जहाँ कहीं ये मन जाये, जाने दो। जहाँ जाकर खड़ा होगा - उसी जगह अपने इष्ट देव श्याम सुन्दर को खड़ा कर दो। इस तरह बार-बार अभ्यास करते-करते जब मन देख लेगा कि ये हर जगह श्याम सुन्दर को ही खड़ा कर देते हैं, वह संसार की ओर नहीं जायेगा। मन का उन्हीं में अटैचमेंट हो जायेगा (मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते)।
जब मन का संसार के जड़ वस्तु जैसे चाय शराबादि में अटैचमेंट हो जाता है तो भगवान् में क्यों नहीं होगा? वो तो आनंद सिंधु हैं। बार बार सोचो - वे ही हमारे में हैं, उन्ही में आनंद हैं, आत्मा का नाता उन्हीं से है, हम शरीर नहीं हैं आत्मा हैं, वे ही हमारे हितैषी हैं, बाकी सब इनडाइरेक्ट हमारे शत्रु हैं।
जब इस तरह रस मिलने लगेगा आप बड़ी आसानी से आगे बढ़ते जायेंगे।
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
रूपध्यान विज्ञान
प्रैक्टिकल साधना
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जब ऐसे बार बार होता है तो न क्रोध करना चाहिए, न निराश होना चाहिए। क्रोध से मन का पतन होता है, वह और अधिक बिगड़ जाता है। निराश होने पर भी साधना नहीं हो सकती (निरुत्साहस्य दीनस्य)। यह याद रखना चाहिये संसार में जितनी भी चीज़ हमने सीखी हैं, बहुत अभ्यास और गलतियां करने के बाद आयी हैं। दर्जा एक से लेकर बृहस्पति तक सब गलती करते हैं। कोई सर्वज्ञ नहीं है, यद्यपि मिथ्याभिमान के कारण हम लोग अपनी गलती नहीं मानते।
इसलिये जहाँ कहीं ये मन जाये, जाने दो। जहाँ जाकर खड़ा होगा - उसी जगह अपने इष्ट देव श्याम सुन्दर को खड़ा कर दो। इस तरह बार-बार अभ्यास करते-करते जब मन देख लेगा कि ये हर जगह श्याम सुन्दर को ही खड़ा कर देते हैं, वह संसार की ओर नहीं जायेगा। मन का उन्हीं में अटैचमेंट हो जायेगा (मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते)।
जब मन का संसार के जड़ वस्तु जैसे चाय शराबादि में अटैचमेंट हो जाता है तो भगवान् में क्यों नहीं होगा? वो तो आनंद सिंधु हैं। बार बार सोचो - वे ही हमारे में हैं, उन्ही में आनंद हैं, आत्मा का नाता उन्हीं से है, हम शरीर नहीं हैं आत्मा हैं, वे ही हमारे हितैषी हैं, बाकी सब इनडाइरेक्ट हमारे शत्रु हैं।
जब इस तरह रस मिलने लगेगा आप बड़ी आसानी से आगे बढ़ते जायेंगे।
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