हरि-गुरु ही हमारे सर्वस्व हैं -
तू भी मेरा, मैं भी तेरा - यदि इतने का अर्थ कोई समझ ले, तो उसका काम बन जाएगा। संसार में 'मेरा' बहुत सारा होता है - मेरा मकान, मेरा पति, मेरा बेटा, मेरा पिता आदि। इतने सारे 'मेरे' को संभालने में हमें बड़ी मुश्किल पड़ती है। किसी न किसी का मूड ऑफ होता है, कभी-कभी कई-कई का एक साथ मूड ऑफ हो जाता है - दिनभर हमें इसी का टेंशन रहता है। लेकिन भगवान् कहते हैं, "हमारा तुम्हारा रिश्ता ऐसा नहीं है।"
फिर कैसा रिश्ता है? - सब नाते एक जगह।
संसार में हमें अलग-अलग रिश्ते कायम करने पड़ते हैं। एक दो से हमारा काम भी नहीं चलता। उदाहरण के लिए अगर प्रारब्ध से बहन नहीं मिली तो राखी मनाने के लिए ज़बरदस्ती एक नकली बहन बना लेते हैं, जिसे धरम की बहन कहते हैं।
यानी तमाम जन्मों के संस्कार के कारण हमारे अंदर हरेक रिश्ते की कामना है। और उन रिश्तों को कायम करने में हमें बड़ी प्रॉब्लम आती है। तो भगवान् कहते हैं - दिव्यो देव एको नारायणो माता पिता भ्राता निवासः शरणं सुहृद् गतिः, गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्। प्रभवः प्रणवः शृष्ठा प्रणयः प्रलयः स्थितम्॥ -
मैं तुम्हारा सब कुछ बन जाऊँगा। यहाँ तक कि भगवान् गोपियों को अपना गुरु मानते थे -
सहाया गुरुव: शिष्या भुजिष्या बान्धवा: स्त्रिय:। सत्यं वदामि ते पार्थ गोप्य: किं मे भवन्ती न॥
मेरा भक्त मेरा सब कुछ है और मेरे भक्त का मैं सब कुछ हूँ। भगवान् हमारे सब कुछ हैं। हमारा सब नाता उन्हीं के साथ है। संसार में हर रिश्ता अलग होता है - यहाँ तो कोई माँ को बीवी कह दे तो उसको लोग पागल कहेंगे। लेकिन भगवान् के यहाँ ऐसा नहीं - अभी कहा पिता जी, अगले सेकंड में माता जी कहो, अगले सेकंड में बेटा, उसके अगले सेकंड में पतिदेव। खाली कहो नहीं, भावना भी बनाते जाओ, ताकि और कहीं तुम्हारा मन न जाए, भाई, बेटा बनाने के लिए। बस एक जगह प्यार हो। इसको कहते हैं, अनन्य। मामेव ये प्रपद्यन्ते - ये शर्त है कि सब रिश्ता मुझसे ही हो।
भगवान् के नाम, रूप, लीला, गुण, धाम और संत - इन सबको एक मानो और इनको "ही" मन में लाओ। ये शुद्ध हैं, इनसे मन शुद्ध होगा। अशुद्ध मायाबद्ध संसारी नातों को मन में मत लाओ क्योंकि उससे मन और गन्दा होगा। और जिससे प्यार करोगे, मरने के बाद उसी की प्राप्ति होगी। यहाँ तक कि जड़ भरत सरीके परमहंस को एक हिरणी के बच्चे से प्यार हो गया। इसलिए मरने के बाद उनको हिरण बनना पड़ा। तो अगर हमारा बेटा हमसे प्यार करता है तो मरने पर वो हमारा बेटा बनेगा। फिर हम उसके बेटे बनेंगे और फिर वो हमारा बेटा बनेगा। इसी नाटक में सब जीव एक दूसरे के रिश्तेदार बनते जाते हैं। अभिमन्यु जब मारा गया तो अर्जुन परेशान हुआ। उसने भगवान् से कहा कि एक बार मुझे मेरे बेटे को फिर से दिखा दीजिए। भगवान् के समझाने पर भी वो नहीं माना। तो भगवान् ने उस आत्मा को बुलाया। ताकि अर्जुन उसको पहचाने ले, भगवान् ने उस आत्मा में पहले वाला शरीर भी बना दिया। तो अर्जुन ने जब उससे कहा "बेटा!" तो अभिमन्यु ने कहा "ऐ ! खबरदार अगर मुझे बेटा कहा तो! हज़ार बार तू मेरा बेटा बन चुका। तेरे बेटे को तो मैं वहीं छोड़ आया।" शरीर ही तो माँ-बाप-बेटा आदि होता है। माँ के पेट में शरीर ही तो बनता है, आत्मा तो नहीं बनती।
इसलिए "भगवान् मेरे हैं" - इसमें हमें 'ही' लगाना है। भगवान् हमारे अंशी हैं। हमारा उनसे सब प्रकार का नाता है। भक्त भगवान् से कहता है - आपको बड़ी ईर्ष्या है, संसार में तो कोई माँ नहीं कहती कि केवल मुझसे प्यार करो, अपनी पत्नी से प्यार मत करो। लेकिन भगवान् कहते हैं, "देखो, अगर मेरे सिवा कहीं और 0.1% भी मन लगाया तो मैं अपना बिस्तर उठाकर चल दूँगा। तुम्हारे हृदय में नहीं रहूँगा - मामेकं शरणं व्रज।" धर्म की शरण में भी न रहो। अर्जुन धर्म की शरण में भी था और भगवान् की शरण में भी था। भगवान् ने अर्जुन से कहा - सर्वधर्मान् परित्यज्य - ये स्वर्ग-वर्ग के धर्म-वर्म का पालन नहीं चलेगा। केवल मुझसे प्यार करो। और वो प्यार भी कुछ परसेंट नहीं, 100% हो, और कभी-कभी नहीं, सदा रहे - एवं सततयुक्ता, तेषां नित्याभियुक्तानां आदि।
हम लोग आधा-एक घंटे के लिए अपने किसी कमरे में बैठकर भगवान् से थोड़ा-सा प्यार कर लेते हैं। उसके बाद संसारी माँ-बाप-बेटा-स्त्री-पति से प्यार करते हैं। प्रार्थना में हम कह देते हैं - त्वमेव माता च पिता त्वमेव, लेकिन चोरी-चोरी संसारी माँ-बाप से भी प्यार करते हैं। ये तो भगवान् के प्रति धोखा है और भगवान् इस धोखे में नहीं आते। हम अनादिकाल से भगवान् से भी प्यार करते रहे और संसार से भी प्यार करते रहे। इसी कारण अनादिकाल से हम उनसे मिल नहीं पाए। संसार में भी अगर कोई पति ये जान ले कि मेरी बीवी एक और व्यक्ति को पति माने हुई है तो वो अपनी बीवी को त्याग देता है। भगवान् कहते हैं 'ही' करो, केवल मुझसे प्यार करो, और हम 'भी' लगाते रहे। भगवान् कहते हैं, "तुम सब कुछ मुझको मानो तो मैं भी तुमको सब कुछ मानूँगा।"
संसार में कोई किसी के लिए प्यार कर ही नहीं सकता, इम्पॉसिबल है। यहाँ सब अपने स्वार्थ के लिए प्यार करते हैं। संसार में कोई किसी से प्यार करता है तो अकल लगाता है कि "ये भी हमसे प्यार करता है कि नहीं करता, और प्यार करता है तो कितना परसेंट करता है? हमने दो बार फ़ोन किया, और इसने एक बार भी नहीं किया। हमने एक बार फ़ोन किया लेकिन इसने चार बार किया तो हमसे बहुत प्यार करता है।" लेकिन सब धोखा है। बेवकूफ बनाने के लिए वो चार बार फ़ोन करता है। लेकिन भगवान् और गुरु हमसे प्यार करते हैं कि नहीं, ये जानने के लिए बुद्धि लगाने की ज़रूरत नहीं है। वहाँ एक फॉर्मुला है, इसको याद कर लो, बस। भगवान् ने अर्जुन से कहा, "ये यथा मां प्रपद्यन्ते - जितना प्यार जीव गुरु और भगवान् से करता है, उतना ही प्यार उनको भी हमसे करना पड़ता है, करते हैं, करना पड़ेगा। ये पक्का विश्वास रखो, वहाँ धोखा नहीं है। क्योंकि नियम है।" अब बुद्धि लगाने की ज़रूरत ही नहीं है। बस देख लो कि आपका अपना प्यार कितना है उनसे, और कितना असली है, कितना नकली। खाली गुरु जी के चरणों पर सिर रखकर अंदर से उनके प्रति विपरीत चिंतन करने से नहीं चलेगा। फिर वे भी हमको पट्टी पढ़ा देंगे - एक्टिंग का प्यार देंगे हमें, कृपा नहीं करेंगे। भगवान् और महापुरुष को कौन धोखा दे सकता है? वे हमारे अंदर घुसकर देख लेते हैं - हमारी कुछ प्राइवेसी नहीं रही। वे हमारे सारे आइडियाज़ नोट कर लेते हैं।
भगवान् कहते हैं, “तुम हमको 'ही' अपना मानो। यानी हमको, हमारे नाम, गुण, लीला, धाम और हमारे संत को एक मानो। हमारे भक्त से प्यार करो, हमसे कभी मत प्यार करो, तो भी चलेगा। हम कृपा कर देंगे। यानी हमारे जो एरिया (गोलोक) वाले हैं, वो सब शुद्ध हैं, उनको मन में लाओ। अशुद्ध को मन में मत लाओ। तुम्हारे माँ बाप बेटा स्त्री पति सब अशुद्ध है। इनका अंतःकरण अनंत जन्म के पापों से गन्दा है। इनको मन में लाओगे तो तुम्हारा मन और गन्दा होगा। और जिससे प्यार करोगे, मरने के बाद उसी के पास जाओगे। अगर तुम्हारी माँ या तुम्हारे पिता महापुरुष है, भगवत्प्राप्ति किए है, तो उससे प्यार कर सकते हो। तो तुम भी गोलोक चले जाओगे। लेकिन अगर वो मायाबद्ध है, तो तुमको भी उसी के पास जाना पड़ेगा। अगर वो गधा बनेगा तो तुमको भी गधा बनना पड़ेगा।”
तो भगवान् मेरे हैं, इसमें 'ही' लगा देना है - बस इतनी सी बात है। भगवान् नहीं बोल सकते कि मैं उनका नहीं हूँ। हमारा उनसे सब प्रकार का नाता है। खास तौर से एक वेद मंत्र का अगर हम अर्थ समझ लें तो सब समझ में आ जायेगा -
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति॥ (श्वेताश्वतरोपनिषद् 4.6) -
एक पेड़ (शरीर) है, उसमे एक घोंसला (हृदय, बाएँ तरफ) है। उस घोंसले में दो पक्षी (दो चेतन - एक जीवात्मा और एक उसका पिता, परमात्मा) एक साथ (चाहे हमारा कोई भी शरीर हो) रहते हैं। एक पक्षी (जीवात्मा) पेड़ के फल को खाता है, दूसरा पक्षी (परमात्मा) फल वल नहीं खाता। बिना खाए ही वो बड़ा बलवान है - वो बस पहले पक्षी को देखता रहता है, नोट करता है।
1/100 सेकंड को भी भगवान् हमारा साथ नहीं छोड़ते। अगर हम कुत्ते बने, तो कुत्ते के शरीर में वे भी हमारे साथ चलते हैं। जीव भगवान् का अंश है। एक बटा सौ सेकंड को भी अंश अपने अंशी से अलग नहीं रह सकता। उनके साथ हमारे सारे सम्बन्ध हैं -
- साजात्य सम्बन्ध - हम सजातीय हैं। यानी एक ही जाती के हैं। वे भी चेतन और हम भी चेतन। सारे शरीर को हमने चेतन बनाया है।
- सख्य सम्बन्ध - वे हमारे सखा हैं। यानी हमारे हितैषी भी हैं। माँ के पेट में वे हमारे लिए ऐसा विचित्र शरीर बना देते हैं जो आज तक उस शरीर को संसार में कोई समझ भी नहीं सका भले ही कितने ही ऑपरेशन कर डाले। माँ के शरीर में ही वो बढ़ता गया - एक बिंदु से सारे शरीर के विचित्र-विचित्र अंग बन गए, बिना किसी कारीगर के। अपने आप तो एक सुराही भी नहीं बनती, वो भी एक निपुण कुम्हार ही बना पाता है। फिर पैदा होने से लेकर हमारे खाने-पीने का प्रबंध करते हैं और हमारे पूर्व जन्म में की हुई भक्ति का फल देकर हमें गुरु से भी मिला देते हैं। हमारा हिसाब बिठा देते हैं। संसारी सखा के स्वार्थ में ज़रा-सी कुछ गड़बड़ हुई तो वो हमको छोड़ देता है ये सोचकर कि ये तो बेकार है। वो अबॉउट टर्न होकर दूसरा सखा बना लेता है।
- सायुज्य सम्बन्ध - य आत्मनि तिष्ठति - हम उनके अंदर रहते हैं, बिल्कुल एक हैं। उन्हीं की शक्ति से हम चेतन रहते हैं। अगर वे अपनी शक्ति को हटा दें तो हम 0/100 हो जाएंगे। पंखा पावरहाउस के कारण चल रहा है। वहाँ से कोई पावर हटा दे तो पंखा बंद हो जाएगा।
- साद्देश्य सम्बन्ध - हमेशा एक ही जगह पर दोनों रहते हैं। भगवान् हमारे अंतःकरण में सदा साथ रहते हैं।
ऐसे सखा हैं वे हमारे।
वे हमारे सब कुछ हैं और मैं भी उसी प्रकार उनका सब कुछ हूँ, यानी 'तू ही मेरा' - ये बात कोई अपनी बुद्धि में अच्छी तरह बिठा ले, तो फिर वो संसार की ओर नहीं भागेगा - बस उसी साँचे पिता, साँची माता और साँचे सखा की ओर ही भागेगा, जो सदा के लिए है। हमारी अनंत माँ बन चुकी है कुत्ते की योनि में भी, गधे की योनि में भी, मनुष्य शरीर में भी। कहाँ हैं वो सब? संसारी नाते तो हर जन्म में बदलते रहते हैं। और हर बार हम यही गलती करते जा रहे हैं कि ये मेरी माँ है, ये मेरा बाप है। ये सब तुम्हारे नहीं हैं, वो है तुम्हारा - तो ये बात जानो और मानो, तब काम बनेगा।
हरि-गुरु ही हमारे सर्वस्व हैं -
तू भी मेरा, मैं भी तेरा - यदि इतने का अर्थ कोई समझ ले, तो उसका काम बन जाएगा। संसार में 'मेरा' बहुत सारा होता है - मेरा मकान, मेरा पति, मेरा बेटा, मेरा पिता आदि। इतने सारे 'मेरे' को संभालने में हमें बड़ी मुश्किल पड़ती है। किसी न किसी का मूड ऑफ होता है, कभी-कभी कई-कई का एक साथ मूड ऑफ हो जाता है - दिनभर हमें इसी का टेंशन रहता है। लेकिन भगवान् कहते हैं, "हमारा तुम्हारा रिश्ता ऐसा नहीं है।"
फिर कैसा रिश्ता है? - सब नाते एक जगह।
संसार में हमें अलग-अलग रिश्ते कायम करने पड़ते हैं। एक दो से हमारा काम भी नहीं चलता। उदाहरण के लिए अगर प्रारब्ध से बहन नहीं मिली तो राखी मनाने के लिए ज़बरदस्ती एक नकली बहन बना लेते हैं, जिसे धरम की बहन कहते हैं।
यानी तमाम जन्मों के संस्कार के कारण हमारे अंदर हरेक रिश्ते की कामना है। और उन रिश्तों को कायम करने में हमें बड़ी प्रॉब्लम आती है। तो भगवान् कहते हैं - दिव्यो देव एको नारायणो माता पिता भ्राता निवासः शरणं सुहृद् गतिः, गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्। प्रभवः प्रणवः शृष्ठा प्रणयः प्रलयः स्थितम्॥ -
मैं तुम्हारा सब कुछ बन जाऊँगा। यहाँ तक कि भगवान् गोपियों को अपना गुरु मानते थे -
सहाया गुरुव: शिष्या भुजिष्या बान्धवा: स्त्रिय:। सत्यं वदामि ते पार्थ गोप्य: किं मे भवन्ती न॥
मेरा भक्त मेरा सब कुछ है और मेरे भक्त का मैं सब कुछ हूँ। भगवान् हमारे सब कुछ हैं। हमारा सब नाता उन्हीं के साथ है। संसार में हर रिश्ता अलग होता है - यहाँ तो कोई माँ को बीवी कह दे तो उसको लोग पागल कहेंगे। लेकिन भगवान् के यहाँ ऐसा नहीं - अभी कहा पिता जी, अगले सेकंड में माता जी कहो, अगले सेकंड में बेटा, उसके अगले सेकंड में पतिदेव। खाली कहो नहीं, भावना भी बनाते जाओ, ताकि और कहीं तुम्हारा मन न जाए, भाई, बेटा बनाने के लिए। बस एक जगह प्यार हो। इसको कहते हैं, अनन्य। मामेव ये प्रपद्यन्ते - ये शर्त है कि सब रिश्ता मुझसे ही हो।
भगवान् के नाम, रूप, लीला, गुण, धाम और संत - इन सबको एक मानो और इनको "ही" मन में लाओ। ये शुद्ध हैं, इनसे मन शुद्ध होगा। अशुद्ध मायाबद्ध संसारी नातों को मन में मत लाओ क्योंकि उससे मन और गन्दा होगा। और जिससे प्यार करोगे, मरने के बाद उसी की प्राप्ति होगी। यहाँ तक कि जड़ भरत सरीके परमहंस को एक हिरणी के बच्चे से प्यार हो गया। इसलिए मरने के बाद उनको हिरण बनना पड़ा। तो अगर हमारा बेटा हमसे प्यार करता है तो मरने पर वो हमारा बेटा बनेगा। फिर हम उसके बेटे बनेंगे और फिर वो हमारा बेटा बनेगा। इसी नाटक में सब जीव एक दूसरे के रिश्तेदार बनते जाते हैं। अभिमन्यु जब मारा गया तो अर्जुन परेशान हुआ। उसने भगवान् से कहा कि एक बार मुझे मेरे बेटे को फिर से दिखा दीजिए। भगवान् के समझाने पर भी वो नहीं माना। तो भगवान् ने उस आत्मा को बुलाया। ताकि अर्जुन उसको पहचाने ले, भगवान् ने उस आत्मा में पहले वाला शरीर भी बना दिया। तो अर्जुन ने जब उससे कहा "बेटा!" तो अभिमन्यु ने कहा "ऐ ! खबरदार अगर मुझे बेटा कहा तो! हज़ार बार तू मेरा बेटा बन चुका। तेरे बेटे को तो मैं वहीं छोड़ आया।" शरीर ही तो माँ-बाप-बेटा आदि होता है। माँ के पेट में शरीर ही तो बनता है, आत्मा तो नहीं बनती।
इसलिए "भगवान् मेरे हैं" - इसमें हमें 'ही' लगाना है। भगवान् हमारे अंशी हैं। हमारा उनसे सब प्रकार का नाता है। भक्त भगवान् से कहता है - आपको बड़ी ईर्ष्या है, संसार में तो कोई माँ नहीं कहती कि केवल मुझसे प्यार करो, अपनी पत्नी से प्यार मत करो। लेकिन भगवान् कहते हैं, "देखो, अगर मेरे सिवा कहीं और 0.1% भी मन लगाया तो मैं अपना बिस्तर उठाकर चल दूँगा। तुम्हारे हृदय में नहीं रहूँगा - मामेकं शरणं व्रज।" धर्म की शरण में भी न रहो। अर्जुन धर्म की शरण में भी था और भगवान् की शरण में भी था। भगवान् ने अर्जुन से कहा - सर्वधर्मान् परित्यज्य - ये स्वर्ग-वर्ग के धर्म-वर्म का पालन नहीं चलेगा। केवल मुझसे प्यार करो। और वो प्यार भी कुछ परसेंट नहीं, 100% हो, और कभी-कभी नहीं, सदा रहे - एवं सततयुक्ता, तेषां नित्याभियुक्तानां आदि।
हम लोग आधा-एक घंटे के लिए अपने किसी कमरे में बैठकर भगवान् से थोड़ा-सा प्यार कर लेते हैं। उसके बाद संसारी माँ-बाप-बेटा-स्त्री-पति से प्यार करते हैं। प्रार्थना में हम कह देते हैं - त्वमेव माता च पिता त्वमेव, लेकिन चोरी-चोरी संसारी माँ-बाप से भी प्यार करते हैं। ये तो भगवान् के प्रति धोखा है और भगवान् इस धोखे में नहीं आते। हम अनादिकाल से भगवान् से भी प्यार करते रहे और संसार से भी प्यार करते रहे। इसी कारण अनादिकाल से हम उनसे मिल नहीं पाए। संसार में भी अगर कोई पति ये जान ले कि मेरी बीवी एक और व्यक्ति को पति माने हुई है तो वो अपनी बीवी को त्याग देता है। भगवान् कहते हैं 'ही' करो, केवल मुझसे प्यार करो, और हम 'भी' लगाते रहे। भगवान् कहते हैं, "तुम सब कुछ मुझको मानो तो मैं भी तुमको सब कुछ मानूँगा।"
संसार में कोई किसी के लिए प्यार कर ही नहीं सकता, इम्पॉसिबल है। यहाँ सब अपने स्वार्थ के लिए प्यार करते हैं। संसार में कोई किसी से प्यार करता है तो अकल लगाता है कि "ये भी हमसे प्यार करता है कि नहीं करता, और प्यार करता है तो कितना परसेंट करता है? हमने दो बार फ़ोन किया, और इसने एक बार भी नहीं किया। हमने एक बार फ़ोन किया लेकिन इसने चार बार किया तो हमसे बहुत प्यार करता है।" लेकिन सब धोखा है। बेवकूफ बनाने के लिए वो चार बार फ़ोन करता है। लेकिन भगवान् और गुरु हमसे प्यार करते हैं कि नहीं, ये जानने के लिए बुद्धि लगाने की ज़रूरत नहीं है। वहाँ एक फॉर्मुला है, इसको याद कर लो, बस। भगवान् ने अर्जुन से कहा, "ये यथा मां प्रपद्यन्ते - जितना प्यार जीव गुरु और भगवान् से करता है, उतना ही प्यार उनको भी हमसे करना पड़ता है, करते हैं, करना पड़ेगा। ये पक्का विश्वास रखो, वहाँ धोखा नहीं है। क्योंकि नियम है।" अब बुद्धि लगाने की ज़रूरत ही नहीं है। बस देख लो कि आपका अपना प्यार कितना है उनसे, और कितना असली है, कितना नकली। खाली गुरु जी के चरणों पर सिर रखकर अंदर से उनके प्रति विपरीत चिंतन करने से नहीं चलेगा। फिर वे भी हमको पट्टी पढ़ा देंगे - एक्टिंग का प्यार देंगे हमें, कृपा नहीं करेंगे। भगवान् और महापुरुष को कौन धोखा दे सकता है? वे हमारे अंदर घुसकर देख लेते हैं - हमारी कुछ प्राइवेसी नहीं रही। वे हमारे सारे आइडियाज़ नोट कर लेते हैं।
भगवान् कहते हैं, “तुम हमको 'ही' अपना मानो। यानी हमको, हमारे नाम, गुण, लीला, धाम और हमारे संत को एक मानो। हमारे भक्त से प्यार करो, हमसे कभी मत प्यार करो, तो भी चलेगा। हम कृपा कर देंगे। यानी हमारे जो एरिया (गोलोक) वाले हैं, वो सब शुद्ध हैं, उनको मन में लाओ। अशुद्ध को मन में मत लाओ। तुम्हारे माँ बाप बेटा स्त्री पति सब अशुद्ध है। इनका अंतःकरण अनंत जन्म के पापों से गन्दा है। इनको मन में लाओगे तो तुम्हारा मन और गन्दा होगा। और जिससे प्यार करोगे, मरने के बाद उसी के पास जाओगे। अगर तुम्हारी माँ या तुम्हारे पिता महापुरुष है, भगवत्प्राप्ति किए है, तो उससे प्यार कर सकते हो। तो तुम भी गोलोक चले जाओगे। लेकिन अगर वो मायाबद्ध है, तो तुमको भी उसी के पास जाना पड़ेगा। अगर वो गधा बनेगा तो तुमको भी गधा बनना पड़ेगा।”
तो भगवान् मेरे हैं, इसमें 'ही' लगा देना है - बस इतनी सी बात है। भगवान् नहीं बोल सकते कि मैं उनका नहीं हूँ। हमारा उनसे सब प्रकार का नाता है। खास तौर से एक वेद मंत्र का अगर हम अर्थ समझ लें तो सब समझ में आ जायेगा -
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति॥ (श्वेताश्वतरोपनिषद् 4.6) -
एक पेड़ (शरीर) है, उसमे एक घोंसला (हृदय, बाएँ तरफ) है। उस घोंसले में दो पक्षी (दो चेतन - एक जीवात्मा और एक उसका पिता, परमात्मा) एक साथ (चाहे हमारा कोई भी शरीर हो) रहते हैं। एक पक्षी (जीवात्मा) पेड़ के फल को खाता है, दूसरा पक्षी (परमात्मा) फल वल नहीं खाता। बिना खाए ही वो बड़ा बलवान है - वो बस पहले पक्षी को देखता रहता है, नोट करता है।
1/100 सेकंड को भी भगवान् हमारा साथ नहीं छोड़ते। अगर हम कुत्ते बने, तो कुत्ते के शरीर में वे भी हमारे साथ चलते हैं। जीव भगवान् का अंश है। एक बटा सौ सेकंड को भी अंश अपने अंशी से अलग नहीं रह सकता। उनके साथ हमारे सारे सम्बन्ध हैं -
ऐसे सखा हैं वे हमारे।
वे हमारे सब कुछ हैं और मैं भी उसी प्रकार उनका सब कुछ हूँ, यानी 'तू ही मेरा' - ये बात कोई अपनी बुद्धि में अच्छी तरह बिठा ले, तो फिर वो संसार की ओर नहीं भागेगा - बस उसी साँचे पिता, साँची माता और साँचे सखा की ओर ही भागेगा, जो सदा के लिए है। हमारी अनंत माँ बन चुकी है कुत्ते की योनि में भी, गधे की योनि में भी, मनुष्य शरीर में भी। कहाँ हैं वो सब? संसारी नाते तो हर जन्म में बदलते रहते हैं। और हर बार हम यही गलती करते जा रहे हैं कि ये मेरी माँ है, ये मेरा बाप है। ये सब तुम्हारे नहीं हैं, वो है तुम्हारा - तो ये बात जानो और मानो, तब काम बनेगा।
Read Next
Daily Devotion - Sep 10, 2025 (English)- Narad Bhakti Darshan - Part 3
Nārad Bhakti Darshan - Next Part - (i) Yat prāpya na kiṁcid vāñchati (continued) However, Shri Maharaj Ji's opinion is that although desires related to God are not condemnable, they are not praiseworthy either. Why so? Because desire, whether worldly or spiritual, is dangerous for the sādhak. How
Daily Devotion - Sep 8, 2025 (English)- Narad Bhakti Darshan - Part 2
Nārad Bhakti Darshan (continued) - 2) Amr̥to bhavati - Becomes amr̥t. Amr̥t has two meanings - 1. It is eternal. Gyānis experience the bliss of Brahm without the senses, mind, and intellect. But devotee's senses, mind, and intellect also remain, and they are eternal and
Daily Devotion - Sep 6, 2025 (English)- You Alone
Tu hi tu hi tu hi to hai mera Nandanandan - meaning - O Shri Krishna, You alone are mine - no one else, no one else, no one else. The word 'hī' in Hindi means 'only' - only You. Mother, father, brother, son, beloved -
Daily Devotion - Sep 4, 2025 (English)- Narad Bhakti Darshan - Part 1
Nārad Bhakti Darshan is a scripture comprising eighty-four sutras (aphorisms). Nārad Ji is a descendant of God. He was given the name 'Nārad' because: narasyedaṁ nāraṁ nāraṁ dyati iti nāradaḥ - He who destroys the ignorance of human beings and bestows Divine love is called Nārad. The Vedas