प्रेम रस सिद्धान्त एक अद्वितीय ग्रन्थ है। वेदों, उपनिषद्, भागवत, गीता, रामायण सब का सार हमारे गुरुवर ने हमारे सामने रख दिया। सम्पूर्ण विश्व उनके ग्रंथों के लिए, और जो कुछ उन्होंने विश्व को दिया, उसके लिए चिरकाल तक उनका ऋणी रहेगा। आज हम बड़े गौरव के साथ कहते हैं कि प्रेम रस सिद्धान्त हमारे प्रिय गुरुवर का लिखा हुआ है।
कृपालु गुरुवर जैसा कोई संत नहीं,
उनके ज्ञान का कहीं कोई अंत नहीं,
भक्ति योग जैसा कोई पंथ नहीं और
प्रेम रस सिद्धांत जैसा कोई ग्रन्थ नहीं।
महाराज जी का हर विषय अनंत है - अनंत है उनकी कृपा, अनंत है उनका प्रेम, अनंत है उनका भक्ति रस जो अनंत रूपों में युगों-युगों तक प्रवाहित होता रहेगा। हम सदा-सदा अपने प्रिय गुरवर के ग्रंथों का, उनके प्रवचनों का, उनकी गुणावली का और उनके अद्भुत अलौकिक व्यक्तित्व का गुण-गान करते रहेंगे। क्योंकि उनसे सम्बंधित हर विषय नित्य-नवायमान हो जाता है, और वो प्रतिक्षण वर्धमान होता जाता है। उनको बार-बार सुनने और पढ़ने पर भी हम को यही लगता है कि हमें और सुनना है और और पढ़ना है। आज प्रेम रस सिद्धांत को सम्मान देने का और उनके प्रति आभार व्यक्त करने का एक ऐतिहासिक अवसर है - आज प्रेम रस सिद्धान्त को हम अपने सिर पर रखकर राधेश्यामी ओढ़ लेंगे और अपने गुरुवर के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम करते हुए इस महान ग्रन्थ की परिक्रमा करेंगे जिसके द्वारा लाखों लोगों का आध्यात्मिक लाभ हुआ है और आगे भी करोड़ों का लाभ होता रहेगा। राधेश्यामी में हरये नमः और गुरवे नमः भी श्री मजहराज जी की हैंड-राइटिंग में लिखा हुआ है। इस भावना से इसे ओढ़ें ताकि यदि हमारा चिंतन न भी चल रहा हो, तो 'हरये नमः, गुरवे नमः' स्वतः चलता रहे। श्री महाराज जी से हम प्रार्थना करेंगे कि इसमें जो सिद्धान्त लिखा हुआ है, वो हमारे अंदर प्रविष्ट हो जाए जो बार-बार पढ़ने पर भी पूरी तरह से नहीं होता। इन सब भावों को हृदय में रखते हुए आज हम प्रेम रस सिद्धान्त ग्रन्थ की परिक्रमा करेंगे और श्री महाराज जी और अम्मा जी से प्रार्थना करेंगे कि हम इस सिद्धान्त को प्रैक्टिकली पालन कर सकें। इस ग्रन्थ की परिक्रमा में अवश्य सम्मिलित हों।
1940 से श्री महाराज जी घंटों-घंटों तक हरि नाम संकीर्तन द्वारा प्रेम रस लुटाते रहे, लोग प्रेम रस में विभोर होते रहे, वे स्वयं भी मूर्छित होते रहे। फिर उनको याद आया कि मेरा अवतरण किस उद्देश्य से हुआ। फिर जगह-जगह जाकर उन्होंने देखा कि वास्तविक सनातन धर्म के नाम पर दम्भ और पाखण्ड बढ़ता जा रहा है। हमारी प्राचीन मान्यताएँ लुप्त होती जा रही हैं। उस समय तब उनके प्रियजनों ने उनसे प्रार्थना की कि 'जो आध्यात्मिक बातें आप हम लोगों को समझाते हैं, इसका एक ग्रन्थ बना दीजियेगा।' इस प्रकार प्रेम रस सिद्धांत की यात्रा शुरू हुई। 1954 में श्री महाराज जी ने इस ग्रन्थ को प्रकट किया। उन्होंने कहा, "मेरे विचारों की गति इतनी तेज़ है कि मैं स्वयं इसको नहीं लिख नहीं पाऊँगा।" एक साधक को बुलाकर बोलते चले गए और वो लिखता गया। और उन्होंने स्वयं इस ग्रन्थ की प्रूफ-रीडिंग की और स्वयं साइकल पर बैठकर प्रिंटिंग प्रेस तक गए। 1955 में इसकी बहुत सारी प्रतिलिपियाँ प्रकाशित हुईं जो जन साधारण को उपलब्ध हुईं।
इस महान ग्रन्थ का वास्तविक मूल्य है हमारे परम प्रियतम श्री कृष्ण के मधुर मिलन के लिए परम व्याकुलता। वो तो हम चुका नहीं पाएँगे। लेकिन महाराज जी के प्रति अपने आभार और कृतज्ञता को प्रकट करते हुए उनसे प्रार्थना कर सकते हैं कि हमारी व्याकुलता बढ़ाएँ। सब के पास प्रेम रस सिद्धान्त होना चाहिए। और हम संकल्प करेंगे कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों में इस ग्रन्थ को बाँटते रहेंगे फिर भी हमें संतुष्टि नहीं होगी। सबसे हम बताएँगे कि यह ग्रंथ हमारे परम प्रिय गुरुवर श्री कृपालु जी महाराज की परम औषधि है जिससे हमें लाभ मिला। जैसे आज गीता और रामायण हर घर में हैं, ऐसे ही एक दिन यह प्रेम रस सिद्धांत ग्रन्थ भी हर घर में होगा।
श्रीमद् सद्गुरु सरकार की जय ! प्रेम रस सिद्धांत की जय !
Prem Ras Siddhant - Hindi:
Prem Ras Siddhant - Hindi Ebook:
Prem Ras Siddhant - English Ebook:
Prem Ras Siddhant - Nepali:
Prem Ras Siddhant - Gujarati
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Prem Ras Siddhant - Bangla:
Prem Ras Siddhant - Oriya:
प्रेम रस सिद्धान्त एक अद्वितीय ग्रन्थ है। वेदों, उपनिषद्, भागवत, गीता, रामायण सब का सार हमारे गुरुवर ने हमारे सामने रख दिया। सम्पूर्ण विश्व उनके ग्रंथों के लिए, और जो कुछ उन्होंने विश्व को दिया, उसके लिए चिरकाल तक उनका ऋणी रहेगा। आज हम बड़े गौरव के साथ कहते हैं कि प्रेम रस सिद्धान्त हमारे प्रिय गुरुवर का लिखा हुआ है।
कृपालु गुरुवर जैसा कोई संत नहीं,
उनके ज्ञान का कहीं कोई अंत नहीं,
भक्ति योग जैसा कोई पंथ नहीं और
प्रेम रस सिद्धांत जैसा कोई ग्रन्थ नहीं।
महाराज जी का हर विषय अनंत है - अनंत है उनकी कृपा, अनंत है उनका प्रेम, अनंत है उनका भक्ति रस जो अनंत रूपों में युगों-युगों तक प्रवाहित होता रहेगा। हम सदा-सदा अपने प्रिय गुरवर के ग्रंथों का, उनके प्रवचनों का, उनकी गुणावली का और उनके अद्भुत अलौकिक व्यक्तित्व का गुण-गान करते रहेंगे। क्योंकि उनसे सम्बंधित हर विषय नित्य-नवायमान हो जाता है, और वो प्रतिक्षण वर्धमान होता जाता है। उनको बार-बार सुनने और पढ़ने पर भी हम को यही लगता है कि हमें और सुनना है और और पढ़ना है। आज प्रेम रस सिद्धांत को सम्मान देने का और उनके प्रति आभार व्यक्त करने का एक ऐतिहासिक अवसर है - आज प्रेम रस सिद्धान्त को हम अपने सिर पर रखकर राधेश्यामी ओढ़ लेंगे और अपने गुरुवर के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम करते हुए इस महान ग्रन्थ की परिक्रमा करेंगे जिसके द्वारा लाखों लोगों का आध्यात्मिक लाभ हुआ है और आगे भी करोड़ों का लाभ होता रहेगा। राधेश्यामी में हरये नमः और गुरवे नमः भी श्री मजहराज जी की हैंड-राइटिंग में लिखा हुआ है। इस भावना से इसे ओढ़ें ताकि यदि हमारा चिंतन न भी चल रहा हो, तो 'हरये नमः, गुरवे नमः' स्वतः चलता रहे। श्री महाराज जी से हम प्रार्थना करेंगे कि इसमें जो सिद्धान्त लिखा हुआ है, वो हमारे अंदर प्रविष्ट हो जाए जो बार-बार पढ़ने पर भी पूरी तरह से नहीं होता। इन सब भावों को हृदय में रखते हुए आज हम प्रेम रस सिद्धान्त ग्रन्थ की परिक्रमा करेंगे और श्री महाराज जी और अम्मा जी से प्रार्थना करेंगे कि हम इस सिद्धान्त को प्रैक्टिकली पालन कर सकें। इस ग्रन्थ की परिक्रमा में अवश्य सम्मिलित हों।
1940 से श्री महाराज जी घंटों-घंटों तक हरि नाम संकीर्तन द्वारा प्रेम रस लुटाते रहे, लोग प्रेम रस में विभोर होते रहे, वे स्वयं भी मूर्छित होते रहे। फिर उनको याद आया कि मेरा अवतरण किस उद्देश्य से हुआ। फिर जगह-जगह जाकर उन्होंने देखा कि वास्तविक सनातन धर्म के नाम पर दम्भ और पाखण्ड बढ़ता जा रहा है। हमारी प्राचीन मान्यताएँ लुप्त होती जा रही हैं। उस समय तब उनके प्रियजनों ने उनसे प्रार्थना की कि 'जो आध्यात्मिक बातें आप हम लोगों को समझाते हैं, इसका एक ग्रन्थ बना दीजियेगा।' इस प्रकार प्रेम रस सिद्धांत की यात्रा शुरू हुई। 1954 में श्री महाराज जी ने इस ग्रन्थ को प्रकट किया। उन्होंने कहा, "मेरे विचारों की गति इतनी तेज़ है कि मैं स्वयं इसको नहीं लिख नहीं पाऊँगा।" एक साधक को बुलाकर बोलते चले गए और वो लिखता गया। और उन्होंने स्वयं इस ग्रन्थ की प्रूफ-रीडिंग की और स्वयं साइकल पर बैठकर प्रिंटिंग प्रेस तक गए। 1955 में इसकी बहुत सारी प्रतिलिपियाँ प्रकाशित हुईं जो जन साधारण को उपलब्ध हुईं।
इस महान ग्रन्थ का वास्तविक मूल्य है हमारे परम प्रियतम श्री कृष्ण के मधुर मिलन के लिए परम व्याकुलता। वो तो हम चुका नहीं पाएँगे। लेकिन महाराज जी के प्रति अपने आभार और कृतज्ञता को प्रकट करते हुए उनसे प्रार्थना कर सकते हैं कि हमारी व्याकुलता बढ़ाएँ। सब के पास प्रेम रस सिद्धान्त होना चाहिए। और हम संकल्प करेंगे कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों में इस ग्रन्थ को बाँटते रहेंगे फिर भी हमें संतुष्टि नहीं होगी। सबसे हम बताएँगे कि यह ग्रंथ हमारे परम प्रिय गुरुवर श्री कृपालु जी महाराज की परम औषधि है जिससे हमें लाभ मिला। जैसे आज गीता और रामायण हर घर में हैं, ऐसे ही एक दिन यह प्रेम रस सिद्धांत ग्रन्थ भी हर घर में होगा।
श्रीमद् सद्गुरु सरकार की जय ! प्रेम रस सिद्धांत की जय !
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