कहा जाता है कि श्री महाराज जी ने उपाधि स्वीकार करके हम पर छप्पर फाड़ कर कृपा की है। श्री महाराज जी को सम्मानित किया गया इससे हम पर किस प्रकार से कृपा हुयी? प्रति वर्ष, हम यह दिन उत्सव के रूप में क्यों मनाते हैं? इसको मनाने से हमारा क्या लाभ होगा?
श्री महाराज जी को ‘जगद्गुरूत्तम’ की उपाधि से सम्मानित किया गया, यह एक बहुत ही बड़ी उपलब्धि है।
कहा जाता है कि श्री महाराज जी ने उपाधि स्वीकार करके हम पर छप्पर फाड़ कर कृपा की है। श्री महाराज जी को सम्मानित किया गया इससे हम पर किस प्रकार से कृपा हुयी? प्रति वर्ष, हम यह दिन उत्सव के रूप में क्यों मनाते हैं? इसको मनाने से हमारा क्या लाभ होगा?
उत्तर
संत तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है
भूर्ज तरू सम संत कृपाला। पर हित सह नित विपति विशाला॥
"संत भूर्ज के वृक्ष के समान होते हैं। दूसरों के हित के लिये वे स्वयं घोर कष्ट उठाने को सहर्ष तत्पर रहते हैं"।
संतो की दया एवं उदारता के गुणों के कारण उनकी तुलना भूर्ज के वृक्ष से की जाती है। भूर्ज के वृक्ष का तना छाल की परतों का बना होता है। कागज के आविष्कार से पूर्व हमारे पुरातन ग्रन्थों को लिपिबद्ध करने हेतु छाल का प्रयोग होता था। यदि कोई इस वृक्ष के तने की सभी परतों को निकाल ले तो पेड़ का अंत हो जाता है। बिना किसी विरोध के परार्थ यह पेड़ अंत को प्राप्त हो जाता है।
हम मायिक जीवों के समस्त कार्य स्व-सुख हेतु ही होते हैं । इसके विपरीत संतों के समस्त कार्य सदैव दूसरों के हित के लिये ही होते हैं। वे हम अधम जीवों के उद्धार के लिए, अपमान तथा विरोध को स्वेच्छा से सहते हैं - फिर भी हमारा कल्याण करते हैं।
विषम परिस्थिति
बीसवीं शताब्दी के मध्य में भगवद्-प्रेम पिपासु जीवात्माएँ भगवद् पथ का अनुसरण करना चाहती थीं परंतु ढोंगी बाबा उनका गलत मार्ग दर्शन कर रहे थे। विवेचना करके श्री महाराज जी ने उस काल में निम्नलिखित समस्याएँ परिस्थितियाँ पाईं -
तत्कालीन संतो के उपदेश का उद्देश्य समाज में सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाये रखने तक ही सीमित था। वे मतभेदों के मूलभूत कारण पर प्रकाश नहीं डालते थे।
अनेक पंडित भोले-भाले लोगों को धर्म के नाम पर वेदों-शास्त्रों के श्लोकों का कल्पित अर्थ बताकर ठग रहे थे।
अपने आपको धर्मात्मा कहलाने वाले अधिकतर लोग धर्म का गलत निरूपण किया करते थे। इसके साथ ही सही सिद्धांत का प्रचार करने वाले संतों की भर्त्सना किया करते थे।
श्री महाराज जी को ज्ञात था कि हमारे शास्त्रों के सिद्धांतों में अनेक विरोधाभास हैं। अतः शास्त्रों का स्वाध्यय न करने से वास्तविक भगवद्-ज्ञान एवं भगवद्-अनुभव नहीं होगा। तथा अपूर्ण ज्ञान युक्त मायिक जीवों के निर्देशन में शास्त्राध्ययन करने से सुलझने के बजाय मायिक बुद्धि और उलझती जायेगी।
श्री महाराज जी जानते थे कि कुसंग से जीव के पतन की रक्षा केवल सिद्धांत का सही ज्ञान एवं सन्मार्ग पर चलने का दृढ़ निश्चय ही कर सकता है।
परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये समस्याओं के समाधन हेतु श्री महाराज जी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जीव कल्याण तब संभव होगा जब जन-साधारण के समक्ष यह निर्विवाद सिद्ध हो जाये कि श्री महाराज जी के सिद्धांत का खंडन उद्भट विद्वान भी नहीं कर सकते।
लोगों की दयनीय दशा से द्रवीभूत हो श्री महाराज जी ने जीवों के आध्यात्मिक पथ पर आरोहण हेतु सही मार्गदर्शन करने का संकल्प लिया। और अपने अकारण-करुण विरद के अनुसार, जगद्गुरूत्तम बनकर, ज्ञान के अगाध सागर का निचोड़ सरल भाषा में प्रकट कर दिया। इस भागीरथ प्रयत्न का एक मात्र कारण था कि - हम जीव समकालीन कर्मकांड के परे अपने वास्तविक कल्याण के मार्ग को जानने हेतु आपकी दिव्य वाणी का श्रवण करें।
श्री महाराज जी ने उस समय में प्रचलित प्रथाओं के विरुद्ध वेद-शास्त्र सम्मत सिद्धांत सुनाने के लिये यह योजना बनाई।
धूम मचाना
श्री महाराज जी ने सन 1955 में चित्रकूट में वृहद् अखिल भारतीय संत सम्मेलन में देश भर के 72 विद्वानों को आमंत्रित किया। उन वक्ताओंके समक्ष अनेक विरोधी मत रखें तथा उनका समन्वय करने का अनुरोध किया। जब किसी भी विद्वान् ने समन्वय करने का प्रयास तक नहीं किया तब श्री महाराज जी ने स्वयं लगातार 12 दिनों तक प्रतिदिन 3 घंटे प्रवचन कर उन विरोधाभासी सिद्धांतों का समन्वय कर दिया।
तब लोगों का ध्यान महाराज की विद्वत्ता पर गया। अन्य वक्ताओं की उपेक्षा कर सब श्रोता श्री महाराज जी का प्रवचन सुनने को उत्सुक थे। उपस्थित विद्वान् स्तब्ध थे तथा चिंतित भी थे क्योंकि अब उनके अनुयायी दल बदलते प्रतीत हो रहे थे। जिससे उन विद्वानों की जीविका पर प्रभाव निश्चित था। और उससे भी अधिक गंभीर बात थी कि उनके अभिमान को भारी आघात पहुँचा था।
केवल एक सम्मेलन लोगों के मन पर अमिट छाप छोड़ने के लिए पर्याप्त नहीं था। अतः चित्रकूट सम्मेलन की छाप मानस पटल से मिटने से पहले, अगले ही वर्ष सन् 1956 में श्री महाराज जी ने कानपुर में एक और अखिल भारतीय धार्मिक महासभा का आयोजन किया।
इसमें श्री महाराज जी ने अनेक विख्यात विद्वानों, दार्शनिकों एवं विभूतियों को आमंत्रित किया जिनमें प्रमुख रूप से
श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार - उनके लोकप्रिय प्रकाशनों में से एक कल्याण पत्रिका थी।
जय दयाल गोयंका - गीता प्रेस के संस्थापक
श्री संपूर्णानंद जी - भारतीय शिक्षक और राजनीतिज्ञ, जो उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे,
श्री के.एम. मुंशी - राज्यपाल उत्तर प्रदेश
डॉ. बलदेव मिश्र (डी लिट.) - कई शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रगति में योगदान के लिए अत्यधिक प्रशंसित और भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के गुरु
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन - भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति
श्री अखंडानंद जी - भारत साधु समाज के अध्यक्ष और भारतीय विद्या भवन के मानद बोर्ड सदस्य
श्री गंगेश्वरानंद जी सबसे बड़ा योगदान वेदों का संरक्षण, और पूरे विश्व में वैदिक विद्या का प्रसार है
श्री हरि शरणानंद जी, आदि।
उस महासभा में चर्चा का विषय था अध्यात्मवाद एवं भौतिकवाद का समीकरण। विषय के चयन का उद्देश्य यह था कि सबके हृदय में यह धारणा घर कर ले कि अध्यात्मवाद एवं भौतिकवाद में सामंजस्य परमावश्यक है।
इस सभा में काशी विद्वत्परिषत् के उपाध्यक्ष और सभी 6 दर्शन शास्त्रों के विद्वान श्री राज नारायण शास्त्री कुछ पंडितों के साथ बिना आमंत्रण के ही आए थे। उनका लक्ष्य श्री महाराज जी को परास्त करके उनकी कीर्ति को धूमिल करना था।
श्री महाराज जी का प्रवचन सुनने के बाद उन्होंने भी श्री महाराज जी की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए समस्त श्रोताओं से आग्रह किया कि वे श्री महाराज जी के प्रवचनों का एकाग्र चित्त से श्रवण कर, उसका पालन कर अपने जीवन को कृतार्थ करें।
श्री महाराज जी द्वारा दिव्य ज्ञान की गंगा से काशी विद्वत्परिषत् के विद्वानों को ईर्ष्या हुई और उन्होंने श्री महाराज जी को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। उनका मन्तव्य श्री महाराज जी को परास्त एवं अपमानित कर, विरोध को समाप्त करना था।
ऐतिहासिक क्षण
परंतु श्री महाराज जी द्वारा शास्त्रों वेदों के सिद्धांतों के समन्वयात्मक विचारों को सुनने के पश्चात् वे विद्वान् विरोध छोड़कर आपके ज्ञान के सामने नतमस्तक हो गये तथा पूर्व चारों जगद्गुरुओं का समन्वय करने वाले मूल जगद्गुरु की उपाधि से सम्मानित किया।
यद्यपि श्री महाराज जी का सिद्धांत तत्कालीन मतों के विपरीत था तथापि परिषद् ने भगवद् प्रेमियों को यह स्पष्ट संदेश दे दिया कि सभी श्री महाराज जी के प्रवचनों को ध्यान पूर्वक सुनकर अभ्यास करें और लाभ लें।
श्री महाराज जी भी श्री चैतन्य महाप्रभु, श्री वल्लभाचार्य, श्री हित हरिवंश, श्री हरिदास जी महाराज की भाँति जगद्गुरु की उपाधि की उपेक्षा कर सकते थे परंतु उन्होंने आने वाली अनंत पीढ़ियों को इस सिद्धांत की वैधता को बेझिझक अपनाने का आश्वासन देने के लिए यह पद स्वीकार कर लिया।
ज्ञात रहे कि इस उपाधि से श्री महाराज जी के ज्ञान अथवा आनंद में बढ़ोत्तरी नहीं हुई। तो फिर श्री महाराज जी ने यह उपाधि क्यों स्वीकार की?
डॉक्टर को डॉक्टर कहलाने के लिये डिगरी की आवश्यकता होती है। लेकिन श्री महाराज जी को साधकों को उपदेश देने और मार्गदर्शन करने के लिए इस उपाधि की आवश्यकता नहीं थी। श्री महाराज जी तो पहले से ही प्रेम रस पिपासु अनुयायियों का मार्गदर्शन कर रहे थे। लेकिन उन्होंने जन साधारण के कल्याण हित यह उपाधि स्वीकार कर ली। कल्याण कैसे? अधिक जानने के लिए कृपया आगे पढ़ें।
कृपा के विरद के अनुरूप
जिस प्रकार डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी करने के पश्चात् जब व्यक्ति डिग्री प्राप्त करता है तब पुष्टि हो जाति है कि वह डॉक्टर दवा देने का अधिकारी है। इसी के अनुरूप उपाधि स्वीकार करने से इस सत्य की जन साधारण को भी पुष्टि हो गई कि श्री महाराज जी भगवदीय मार्गदर्शन करने में सर्वसक्षम हैं।
अपने रोग का इलाज करने से पूर्व सबसे पहले हम डॉक्टर की डिग्री की जाँच पड़ताल करते हैं। फिर डॉक्टर की कार्य कुशलता के बारे में लोगों का मत जान कर, संतुष्ट होने के पश्चात् ही हम उसके पास इलाज के लिए जाते हैं।
ठीक इसी प्रकार जब कोई जिज्ञासु आध्यात्मिक पथ प्रदर्शक की खोज करता है तो यह ऐतिहासिक क्षण श्री महाराज जी के दिव्य ज्ञान का प्रमाण देता है। इससे ढोंगियों के द्वारा छले जाने का डर मस्तिष्क से निकल जाता है । अतः हम निःसंकोच श्री महराज जी के आदेशों व आज्ञाओं का पालन कर सकते हैं जिससे वे हमारे भव रोग (मायिक संसार से राग एवं द्वेष) का इलाज कर सकें।
श्री महाराज जी उस दिन से अहर्निश सभी जिज्ञासु जीवात्माओं को, सर्वश्रेष्ठ ज्ञान से लाभान्वित कर, जीव के परम चरम लक्ष्य को प्राप्त करवाने में संलग्न हो गये। श्री महाराज जी ने भक्ति पथ पर हमें चलाने के लिए हजारों प्रवचन दिए तथा अनंत सत्संग करवाए और साधना का क्रियात्मक रूप हमारे सामने प्रस्तुत किया।
अतः श्री महाराज जी ने हम पर तथा संपूर्ण विश्व पर असीम कृपा की है। 14 जनवरी सन् 1957 तथा उसके बाद प्रतिदिन उनके द्वारा की जा रही असीम कृपा से हमारे हृदय उनके प्रति श्रद्धा और प्रेम से प्लावित हो, अनन्य भक्ति से अपने परम चरम लक्ष्य की ओर अग्रसर होने लगे। हम सभी यह दिवस भगवान् के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिए मनाते हैं कि उन्होंने हमें एक महान संत गुरु रूप में दिए। हमारे जगद्गुरूत्तम गुरु के जैसा न कोई था, न है, न होगा।
श्री महाराज जी के द्वारा इस अद्भुत सिद्धांत के प्रतिपादन से पूर्व जाँच कीजिये हम लोग क्या किया करते थे? क्या हम लोग ढोंगी बाबाओं के द्वारा बताए गए अंधविश्वासों को नहीं मानते थे? या अपने उच्चश्रृंखल मन की बातें नहीं मानते थे?
हमें यह बात समझनी होगी कि हमारा परम चरम लक्ष्य दिव्यानंद की प्राप्ति है। सुर दुर्लभ मनुष्य योनि अत्यंत दुर्लभ एवं क्षणभंगुर है। ऐसा दुर्लभ देह पाकर हमारे पास निरर्थक क्रियाओं को करने के लिए समय नहीं है। हमें उनकी इस अनंत कृपा को समझते हुए, उन्हें सहृदय धन्यवाद देते हुए, इस दिवस को उल्लास पूर्वक मना कर भगवान् के प्रति कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए कि उन्होंने हमें इतने सक्षम गुरु प्रदान किए जो कि हमें सही दिशा दिखाते हुए हमें हमारे परम चरम लक्ष्य भगवत प्राप्ति की ओर ले जा रहे हैं। यही इस पर्व को मनाने का उद्देश्य है।
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हरि कृपा गुरु मिले गोविंद राधे । गुरु कृपा हरि मिले सब को बता दे ॥ हरि की कृपा से गुरु मिले हैं और गुरु की कृपा से ही हरि की प्राप्ति होगी ।
In our previous article, we explored the concept of the three eternal entities in the cosmos: Jiva (individual souls), Brahm (God), and maya (illusion), emphasizing the two available paths for the souls - spiritual and material. Now, let's delve deeper into the nature of maya, why the soul
Every action of every individual soul is performed only with the aim of fulfilling its self-interest. This is the philosophy of the Vedas. Until a soul’s self-interest is fulfilled - until that moment when we find infinite, eternally gratifying divine love, we will continue to perform actions in this
Understanding the Eternal Bipartite System
India, the world’s largest democracy, is poised to elect its next government. With a population exceeding 1.4 billion and 970 million eligible voters, the country is gearing up to exercise its democratic rights. But amidst a myriad of contenders, many may find themselves
विशेष भगवद् कृपा का उत्सव
प्रश्न
श्री महाराज जी को ‘जगद्गुरूत्तम’ की उपाधि से सम्मानित किया गया, यह एक बहुत ही बड़ी उपलब्धि है।
कहा जाता है कि श्री महाराज जी ने उपाधि स्वीकार करके हम पर छप्पर फाड़ कर कृपा की है। श्री महाराज जी को सम्मानित किया गया इससे हम पर किस प्रकार से कृपा हुयी? प्रति वर्ष, हम यह दिन उत्सव के रूप में क्यों मनाते हैं? इसको मनाने से हमारा क्या लाभ होगा?
उत्तर
संत तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है
भूर्ज तरू सम संत कृपाला। पर हित सह नित विपति विशाला॥
"संत भूर्ज के वृक्ष के समान होते हैं। दूसरों के हित के लिये वे स्वयं घोर कष्ट उठाने को सहर्ष तत्पर रहते हैं"।
संतो की दया एवं उदारता के गुणों के कारण उनकी तुलना भूर्ज के वृक्ष से की जाती है। भूर्ज के वृक्ष का तना छाल की परतों का बना होता है। कागज के आविष्कार से पूर्व हमारे पुरातन ग्रन्थों को लिपिबद्ध करने हेतु छाल का प्रयोग होता था। यदि कोई इस वृक्ष के तने की सभी परतों को निकाल ले तो पेड़ का अंत हो जाता है। बिना किसी विरोध के परार्थ यह पेड़ अंत को प्राप्त हो जाता है।
हम मायिक जीवों के समस्त कार्य स्व-सुख हेतु ही होते हैं । इसके विपरीत संतों के समस्त कार्य सदैव दूसरों के हित के लिये ही होते हैं। वे हम अधम जीवों के उद्धार के लिए, अपमान तथा विरोध को स्वेच्छा से सहते हैं - फिर भी हमारा कल्याण करते हैं।
विषम परिस्थिति
बीसवीं शताब्दी के मध्य में भगवद्-प्रेम पिपासु जीवात्माएँ भगवद् पथ का अनुसरण करना चाहती थीं परंतु ढोंगी बाबा उनका गलत मार्ग दर्शन कर रहे थे। विवेचना करके श्री महाराज जी ने उस काल में निम्नलिखित समस्याएँ परिस्थितियाँ पाईं -
परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये समस्याओं के समाधन हेतु श्री महाराज जी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जीव कल्याण तब संभव होगा जब जन-साधारण के समक्ष यह निर्विवाद सिद्ध हो जाये कि श्री महाराज जी के सिद्धांत का खंडन उद्भट विद्वान भी नहीं कर सकते।
लोगों की दयनीय दशा से द्रवीभूत हो श्री महाराज जी ने जीवों के आध्यात्मिक पथ पर आरोहण हेतु सही मार्गदर्शन करने का संकल्प लिया। और अपने अकारण-करुण विरद के अनुसार, जगद्गुरूत्तम बनकर, ज्ञान के अगाध सागर का निचोड़ सरल भाषा में प्रकट कर दिया। इस भागीरथ प्रयत्न का एक मात्र कारण था कि - हम जीव समकालीन कर्मकांड के परे अपने वास्तविक कल्याण के मार्ग को जानने हेतु आपकी दिव्य वाणी का श्रवण करें।
श्री महाराज जी ने उस समय में प्रचलित प्रथाओं के विरुद्ध वेद-शास्त्र सम्मत सिद्धांत सुनाने के लिये यह योजना बनाई।
धूम मचाना
श्री महाराज जी ने सन 1955 में चित्रकूट में वृहद् अखिल भारतीय संत सम्मेलन में देश भर के 72 विद्वानों को आमंत्रित किया। उन वक्ताओं के समक्ष अनेक विरोधी मत रखें तथा उनका समन्वय करने का अनुरोध किया। जब किसी भी विद्वान् ने समन्वय करने का प्रयास तक नहीं किया तब श्री महाराज जी ने स्वयं लगातार 12 दिनों तक प्रतिदिन 3 घंटे प्रवचन कर उन विरोधाभासी सिद्धांतों का समन्वय कर दिया।
तब लोगों का ध्यान महाराज की विद्वत्ता पर गया। अन्य वक्ताओं की उपेक्षा कर सब श्रोता श्री महाराज जी का प्रवचन सुनने को उत्सुक थे। उपस्थित विद्वान् स्तब्ध थे तथा चिंतित भी थे क्योंकि अब उनके अनुयायी दल बदलते प्रतीत हो रहे थे। जिससे उन विद्वानों की जीविका पर प्रभाव निश्चित था। और उससे भी अधिक गंभीर बात थी कि उनके अभिमान को भारी आघात पहुँचा था।
केवल एक सम्मेलन लोगों के मन पर अमिट छाप छोड़ने के लिए पर्याप्त नहीं था। अतः चित्रकूट सम्मेलन की छाप मानस पटल से मिटने से पहले, अगले ही वर्ष सन् 1956 में श्री महाराज जी ने कानपुर में एक और अखिल भारतीय धार्मिक महासभा का आयोजन किया।
इसमें श्री महाराज जी ने अनेक विख्यात विद्वानों, दार्शनिकों एवं विभूतियों को आमंत्रित किया जिनमें प्रमुख रूप से
उस महासभा में चर्चा का विषय था अध्यात्मवाद एवं भौतिकवाद का समीकरण। विषय के चयन का उद्देश्य यह था कि सबके हृदय में यह धारणा घर कर ले कि अध्यात्मवाद एवं भौतिकवाद में सामंजस्य परमावश्यक है।
इस सभा में काशी विद्वत्परिषत् के उपाध्यक्ष और सभी 6 दर्शन शास्त्रों के विद्वान श्री राज नारायण शास्त्री कुछ पंडितों के साथ बिना आमंत्रण के ही आए थे। उनका लक्ष्य श्री महाराज जी को परास्त करके उनकी कीर्ति को धूमिल करना था।
श्री महाराज जी का प्रवचन सुनने के बाद उन्होंने भी श्री महाराज जी की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए समस्त श्रोताओं से आग्रह किया कि वे श्री महाराज जी के प्रवचनों का एकाग्र चित्त से श्रवण कर, उसका पालन कर अपने जीवन को कृतार्थ करें।
श्री महाराज जी द्वारा दिव्य ज्ञान की गंगा से काशी विद्वत्परिषत् के विद्वानों को ईर्ष्या हुई और उन्होंने श्री महाराज जी को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। उनका मन्तव्य श्री महाराज जी को परास्त एवं अपमानित कर, विरोध को समाप्त करना था।
ऐतिहासिक क्षण
परंतु श्री महाराज जी द्वारा शास्त्रों वेदों के सिद्धांतों के समन्वयात्मक विचारों को सुनने के पश्चात् वे विद्वान् विरोध छोड़कर आपके ज्ञान के सामने नतमस्तक हो गये तथा पूर्व चारों जगद्गुरुओं का समन्वय करने वाले मूल जगद्गुरु की उपाधि से सम्मानित किया।
यद्यपि श्री महाराज जी का सिद्धांत तत्कालीन मतों के विपरीत था तथापि परिषद् ने भगवद् प्रेमियों को यह स्पष्ट संदेश दे दिया कि सभी श्री महाराज जी के प्रवचनों को ध्यान पूर्वक सुनकर अभ्यास करें और लाभ लें।
श्री महाराज जी भी श्री चैतन्य महाप्रभु, श्री वल्लभाचार्य, श्री हित हरिवंश, श्री हरिदास जी महाराज की भाँति जगद्गुरु की उपाधि की उपेक्षा कर सकते थे परंतु उन्होंने आने वाली अनंत पीढ़ियों को इस सिद्धांत की वैधता को बेझिझक अपनाने का आश्वासन देने के लिए यह पद स्वीकार कर लिया।
ज्ञात रहे कि इस उपाधि से श्री महाराज जी के ज्ञान अथवा आनंद में बढ़ोत्तरी नहीं हुई। तो फिर श्री महाराज जी ने यह उपाधि क्यों स्वीकार की?
डॉक्टर को डॉक्टर कहलाने के लिये डिगरी की आवश्यकता होती है। लेकिन श्री महाराज जी को साधकों को उपदेश देने और मार्गदर्शन करने के लिए इस उपाधि की आवश्यकता नहीं थी। श्री महाराज जी तो पहले से ही प्रेम रस पिपासु अनुयायियों का मार्गदर्शन कर रहे थे। लेकिन उन्होंने जन साधारण के कल्याण हित यह उपाधि स्वीकार कर ली। कल्याण कैसे? अधिक जानने के लिए कृपया आगे पढ़ें।
कृपा के विरद के अनुरूप
जिस प्रकार डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी करने के पश्चात् जब व्यक्ति डिग्री प्राप्त करता है तब पुष्टि हो जाति है कि वह डॉक्टर दवा देने का अधिकारी है। इसी के अनुरूप उपाधि स्वीकार करने से इस सत्य की जन साधारण को भी पुष्टि हो गई कि श्री महाराज जी भगवदीय मार्गदर्शन करने में सर्वसक्षम हैं।
अपने रोग का इलाज करने से पूर्व सबसे पहले हम डॉक्टर की डिग्री की जाँच पड़ताल करते हैं। फिर डॉक्टर की कार्य कुशलता के बारे में लोगों का मत जान कर, संतुष्ट होने के पश्चात् ही हम उसके पास इलाज के लिए जाते हैं।
ठीक इसी प्रकार जब कोई जिज्ञासु आध्यात्मिक पथ प्रदर्शक की खोज करता है तो यह ऐतिहासिक क्षण श्री महाराज जी के दिव्य ज्ञान का प्रमाण देता है। इससे ढोंगियों के द्वारा छले जाने का डर मस्तिष्क से निकल जाता है । अतः हम निःसंकोच श्री महराज जी के आदेशों व आज्ञाओं का पालन कर सकते हैं जिससे वे हमारे भव रोग (मायिक संसार से राग एवं द्वेष) का इलाज कर सकें।
श्री महाराज जी उस दिन से अहर्निश सभी जिज्ञासु जीवात्माओं को, सर्वश्रेष्ठ ज्ञान से लाभान्वित कर, जीव के परम चरम लक्ष्य को प्राप्त करवाने में संलग्न हो गये। श्री महाराज जी ने भक्ति पथ पर हमें चलाने के लिए हजारों प्रवचन दिए तथा अनंत सत्संग करवाए और साधना का क्रियात्मक रूप हमारे सामने प्रस्तुत किया।
अतः श्री महाराज जी ने हम पर तथा संपूर्ण विश्व पर असीम कृपा की है। 14 जनवरी सन् 1957 तथा उसके बाद प्रतिदिन उनके द्वारा की जा रही असीम कृपा से हमारे हृदय उनके प्रति श्रद्धा और प्रेम से प्लावित हो, अनन्य भक्ति से अपने परम चरम लक्ष्य की ओर अग्रसर होने लगे। हम सभी यह दिवस भगवान् के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिए मनाते हैं कि उन्होंने हमें एक महान संत गुरु रूप में दिए। हमारे जगद्गुरूत्तम गुरु के जैसा न कोई था, न है, न होगा।
श्री महाराज जी के द्वारा इस अद्भुत सिद्धांत के प्रतिपादन से पूर्व जाँच कीजिये हम लोग क्या किया करते थे? क्या हम लोग ढोंगी बाबाओं के द्वारा बताए गए अंधविश्वासों को नहीं मानते थे? या अपने उच्चश्रृंखल मन की बातें नहीं मानते थे?
हमें यह बात समझनी होगी कि हमारा परम चरम लक्ष्य दिव्यानंद की प्राप्ति है। सुर दुर्लभ मनुष्य योनि अत्यंत दुर्लभ एवं क्षणभंगुर है। ऐसा दुर्लभ देह पाकर हमारे पास निरर्थक क्रियाओं को करने के लिए समय नहीं है। हमें उनकी इस अनंत कृपा को समझते हुए, उन्हें सहृदय धन्यवाद देते हुए, इस दिवस को उल्लास पूर्वक मना कर भगवान् के प्रति कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए कि उन्होंने हमें इतने सक्षम गुरु प्रदान किए जो कि हमें सही दिशा दिखाते हुए हमें हमारे परम चरम लक्ष्य भगवत प्राप्ति की ओर ले जा रहे हैं। यही इस पर्व को मनाने का उद्देश्य है।
गुरु कृपा हरि मिले सब को बता दे ॥
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- जगद्गुरूत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
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Self-Interest
Every action of every individual soul is performed only with the aim of fulfilling its self-interest. This is the philosophy of the Vedas. Until a soul’s self-interest is fulfilled - until that moment when we find infinite, eternally gratifying divine love, we will continue to perform actions in this
Whom to Vote For?
Understanding the Eternal Bipartite System India, the world’s largest democracy, is poised to elect its next government. With a population exceeding 1.4 billion and 970 million eligible voters, the country is gearing up to exercise its democratic rights. But amidst a myriad of contenders, many may find themselves
Who is more gracious?
Who is more gracious and kind-hearted, Lord Ram or Mother Sita?