- चाहे सत्संगी हो या बाहर का हो - एक नियम बना लो सब लोग, कि सत्संग में जब मिलें केवल भगवद्विषय की बात करें, और कोई बात न करें न सुनें। फिर भी अगर कोई न माने, तो कुछ बहाना बनाकर वहाँ से निकल जाओ। अगर वो बुरा माने तो मानने दो। हमारी हानि न हो, ये तके रहो।
 - हमें हर समय सावधान रहना चाहिए कि जो कमाया है उसमें गड़बड़ न हो। कुसंग से बचो। बड़ी खराब आदत है, 25-25 साल पुराने सत्संगियों की भी - 5-6 घंटे कीर्तन के बाद आपस में संसार की निरर्थक बातें करते रहते हैं, आदतवश। हमारी आदत पर हमें कण्ट्रोल करना चाहिए। केवल भगवद्विषय सुनो और भगवद्विषय बोलो।
 - साधना करने के साथ-साथ हम तरह तरह के अपराध करते हैं जिससे अंतःकरण गन्दा होता है। हमारा एक ही काम है - अंतःकरण को शुद्ध करना। हमारा हृदय भगवान् और गुरु का एक मंदिर है। इसमें हम गुरु और भगवान् को रखना चाहते हैं। ये शुद्ध हैं, इनसे ही अंतःकरण शुद्ध होगा। तो अब तक संसार का जो कुछ इसमें भर दिया है, उसको निकालो और केवल हरि-गुरु को अंदर लाओ।
 - संत की बात सुनने के बाद जितना परमार्थ की बातें सोचोगे, उतने ही आप आगे बढ़ेंगे। श्रोतव्यो, मंतव्यो, निधिध्यासितव्यो मैत्रेयी - सुनो, सोचो, फिर डिसीज़न लो। संत का काम आपको शास्त्र वेद की बातें सुनाना है, लेकिन उसके बाद चिंतन मनन आपका काम है, जिससे वो ज्ञान पक्का होता है। सब कुछ चिंतन पर डिपेंड करता है।
 - इन्द्रियाँ भगवद्प्राप्ति भी करा देती हैं, सर्वनाश भी करा देती हैं। आँखों से हम भगवान् और संत को देखते हैं, कानों से उनकी बातें सुनते हैं, तो भावना अच्छी हो जाती है। और आँखों से गन्दी चीज़ें देखने से और कानों से गन्दी चीज़ें सुनने से भावना गन्दी हो जाती है। पतन की ओर जाना बड़ी स्पीड में होता है। इसका कारण ये है कि संसार और मन दोनों मटीरियल है, दोनों सजातीय हैं - यहाँ मन अपने आप खिंच जाता है क्योंकि अनादिकाल से बहुत अभ्यास हो चुका है। उसके ऑपोज़िट भगवान् की ओर ले जाने में जोर देना पड़ता है। इसलिए अभ्यासेन तु कौंतेय - अभ्यास से मन से संसार को हटाओ। जब ये पक्का विश्वास हो जाए कि हमारा स्वार्थ संसार से हल नहीं होगा, हरि-गुरु से ही हल होगा, तो उनसे प्यार हो जायेगा। क्योंकि हम स्वार्थ से ही प्यार करते हैं। इसी को अभ्यास-वैराग्य कहते हैं। (अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः)
 
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
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