सबसे पहला प्रश्न है - शरण का अर्थ क्या होता है?
दूसरा प्रश्न है - शरण जाना किसको है?
वेद से लेकर रामायण तक सर्वत्र शरण और प्रपन्नाता की ही साधना बताई गई है। यानी हरि-गुरु को मन-बुद्धि का समर्पण करना। और जब मन बुद्धि का समर्पण कर दिया तो फिर उसको लगाना नहीं चाहिए। हमारा हर जगह बुद्धि और मन लगाने का स्वभाव है चाहे संसार हो, चाहे महापुरुष हों या चाहे भगवान् हों।
अगर कोई गुरु को प्रणाम भी न करे बिल्कुल, दूर बैठा रहे और मन को शरणागत कर दे तो वो भगवत्प्राप्ति कर लेगा। 'मनहि मन प्रणाम शिव कीन्हा' - मन को ही भगवान् नोट करते हैं, शरीर के कर्म को वे नोट नहीं करते। (मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु) में 'मन्मना' का अर्थ है - 'केवल' मुझ पर निर्भर हो जा, केवल मुझको मन दे दे - और सब छोड़ दे, बाकी सब मन से निकाल दे। इसी को अनन्य कहते हैं। भगवान् कहते हैं मुझसे अनन्य प्रेम करो। केवल मुझसे प्रेम करो। प्रेम करना माने मन को देना। हाथ पैर सिर से तो प्रेम नहीं बल्कि एक्टिंग होती है।
प्रमुख रूप से दो धर्म होते हैं - 1) शरीर का (मायिक) धर्म और 2) आत्मा का (आध्यात्मिक) धर्म।
शरीर का धर्म कहता है कि माता पिता की आज्ञा मानो। लेकिन भगवान्, वेद शास्त्र और पुराण कहते हैं कि अगर इनकी भक्ति करोगे तो मरने के बाद तुमको भी वहीं जाना पड़ेगा जहाँ ये लोग जाएँगे। जड़ भरत सरीके परमहंस को हिरण बनना पड़ा तो साधारण जीव की क्या गति है?
आत्मा का धर्म है - गुरु की आज्ञा मानो।
भगवान् की शरण में जाना हो तो शारीरिक धर्म को तो छोड़ना ही होगा। दो धर्म एक साथ नहीं चल सकते क्योंकि मन तो एक ही है। अंत मति सोइ गति - अंत में मन की प्रवृत्ति वहीं होती है जहाँ पहले से अटैचमेंट हो चुका। अगर तुम्हारे माँ बाप बेटे महापुरुष हैं और उसमें मन लगा हुआ है तो गोलोक जाओगे।
तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बंधु, भरत महतारी - प्रह्लाद, विभीषण, भरत सबने चैलेंज करके धर्म को छोड़ा।
सब में शरीर का नाता बलवान होकर बैठा हुआ है क्योंकि - i) अनंत जन्मों का अभ्यास है और ii) संसार प्रत्यक्ष है। माँ बाप कितने कष्ट सहकर हमको पाल-पोसकर बड़ा करते हैं। भगवान् तो कहीं दिखते नहीं है कि उन्होंने हमारे लिए कुछ किया हो, केवल किताबों में लिखा है। इसी कारण हम फिज़िकल रिश्तेदारों में अटैचमेन्ट करते हैं। हम ये नहीं जानते कि ये किसी स्वार्थ से कर रहे हैं कि ये बेटा बुढ़ापे में सेवा करेगा। भले ही बेटा बुढ़ापे में उसका एहसान न मानकर अपमान करे।
तो मायिक धर्म को छोड़कर 'ही' आध्यात्मिक धर्म का पालन होता है। जब अर्जुन ने ये सुना कि भगवान् सब क्षमा कर देंगे, तो उसने शारीरिक धर्म सब छोड़ दिया, झगड़ा खतम, गीता खतम। शरणागति मन की 'ही' होती है। साथ में इन्द्रियों को भी लगाए रहो लेकिन केवल इन्द्रियों की शरणागति 0/100 होती है।
http://jkp.org.in/live-radio
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
Guru Sharanagati - Hindi
सबसे पहला प्रश्न है - शरण का अर्थ क्या होता है?
दूसरा प्रश्न है - शरण जाना किसको है?
वेद से लेकर रामायण तक सर्वत्र शरण और प्रपन्नाता की ही साधना बताई गई है। यानी हरि-गुरु को मन-बुद्धि का समर्पण करना। और जब मन बुद्धि का समर्पण कर दिया तो फिर उसको लगाना नहीं चाहिए। हमारा हर जगह बुद्धि और मन लगाने का स्वभाव है चाहे संसार हो, चाहे महापुरुष हों या चाहे भगवान् हों।
अगर कोई गुरु को प्रणाम भी न करे बिल्कुल, दूर बैठा रहे और मन को शरणागत कर दे तो वो भगवत्प्राप्ति कर लेगा। 'मनहि मन प्रणाम शिव कीन्हा' - मन को ही भगवान् नोट करते हैं, शरीर के कर्म को वे नोट नहीं करते। (मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु) में 'मन्मना' का अर्थ है - 'केवल' मुझ पर निर्भर हो जा, केवल मुझको मन दे दे - और सब छोड़ दे, बाकी सब मन से निकाल दे। इसी को अनन्य कहते हैं। भगवान् कहते हैं मुझसे अनन्य प्रेम करो। केवल मुझसे प्रेम करो। प्रेम करना माने मन को देना। हाथ पैर सिर से तो प्रेम नहीं बल्कि एक्टिंग होती है।
प्रमुख रूप से दो धर्म होते हैं - 1) शरीर का (मायिक) धर्म और 2) आत्मा का (आध्यात्मिक) धर्म।
शरीर का धर्म कहता है कि माता पिता की आज्ञा मानो। लेकिन भगवान्, वेद शास्त्र और पुराण कहते हैं कि अगर इनकी भक्ति करोगे तो मरने के बाद तुमको भी वहीं जाना पड़ेगा जहाँ ये लोग जाएँगे। जड़ भरत सरीके परमहंस को हिरण बनना पड़ा तो साधारण जीव की क्या गति है?
आत्मा का धर्म है - गुरु की आज्ञा मानो।
भगवान् की शरण में जाना हो तो शारीरिक धर्म को तो छोड़ना ही होगा। दो धर्म एक साथ नहीं चल सकते क्योंकि मन तो एक ही है। अंत मति सोइ गति - अंत में मन की प्रवृत्ति वहीं होती है जहाँ पहले से अटैचमेंट हो चुका। अगर तुम्हारे माँ बाप बेटे महापुरुष हैं और उसमें मन लगा हुआ है तो गोलोक जाओगे।
तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बंधु, भरत महतारी - प्रह्लाद, विभीषण, भरत सबने चैलेंज करके धर्म को छोड़ा।
सब में शरीर का नाता बलवान होकर बैठा हुआ है क्योंकि - i) अनंत जन्मों का अभ्यास है और ii) संसार प्रत्यक्ष है। माँ बाप कितने कष्ट सहकर हमको पाल-पोसकर बड़ा करते हैं। भगवान् तो कहीं दिखते नहीं है कि उन्होंने हमारे लिए कुछ किया हो, केवल किताबों में लिखा है। इसी कारण हम फिज़िकल रिश्तेदारों में अटैचमेन्ट करते हैं। हम ये नहीं जानते कि ये किसी स्वार्थ से कर रहे हैं कि ये बेटा बुढ़ापे में सेवा करेगा। भले ही बेटा बुढ़ापे में उसका एहसान न मानकर अपमान करे।
तो मायिक धर्म को छोड़कर 'ही' आध्यात्मिक धर्म का पालन होता है। जब अर्जुन ने ये सुना कि भगवान् सब क्षमा कर देंगे, तो उसने शारीरिक धर्म सब छोड़ दिया, झगड़ा खतम, गीता खतम। शरणागति मन की 'ही' होती है। साथ में इन्द्रियों को भी लगाए रहो लेकिन केवल इन्द्रियों की शरणागति 0/100 होती है।
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