समस्त शास्त्र, वेद, संत, पंथ एक स्वर से कहते हैं कि संसार की कामनाएँ छोड़ दो तो सब दुःख चले जाएँ। सब कामनाएँ चली जाएँ तो शांति मिल जाए।
लेकिन प्रश्न ये है कि कामनाएँ चली कैसे जाएँ?
हमारी असली कामना क्या है? आनंद को पाना। उसी आनंद पाने की कामनापूर्ति के लिए हम तमाम कामनाएँ करते हैं।
- देखना, 2) सुनना, 3) सूँघना, 4) रस लेना और 5) स्पर्श करना - ये पाँच कामनाएँ प्रमुख हैं क्योंकि हमारे पास पाँच ही ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, और इन्हीं पाँच ज्ञानेन्द्रियों का ये सारा संसार है।
हम ये चाहते हैं कि गहरी नींद में हमें जो सुख मिलता है, वो सदा मिला रहे (क्योंकि गहरी नींद में कामनाएँ नहीं रहती)। लेकिन जैसे ही आँखें खुलीं, फ़िर से कामनाएँ बन गईं। अनंत बार स्वर्ग जाने पर भी कामनाओं ने हमारा पीछा नहीं छोड़ा। भगवान् को छोड़कर कहीं भी कामना का अंत नहीं है। भगवान् का आनंद मिल जाए, तो फिर चाहे नरक, स्वर्ग, मृत्युलोक कहीं भी रहो, चाहे किसी भी योनि में रहो, आनंदमय रहोगे। लेकिन कामनाएँ तभी छूटेंगी जब भगवान् वाला आनंद मिल जाय। उससे पहले हम कामनाओं को नहीं छोड़ सकते, चाहे कोई मुँह से कुछ भी दावा कर ले। अगर हम बुद्धि से यह सोचें कि 'मैं कामना छोड़ दूँगा' - उससे कामना नहीं जाएगी।
किसी का शरीर ठीक भी हो तो मन सबसे बड़ा दुश्मन है। मन के रोग (काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि) बड़े-बड़े योगियों के पीछे पड़े हैं, साधारण मनुष्य की क्या बात है। योगिनः कृत मैत्रस्य पत्युर्जायेव पुंश्चली - करोड़ों वर्ष पत्ता और जल पीते रहने वाले योगी को भी मन के रोग नहीं छोड़ते।
अगर ये मान भी लें कि आजकल के योग से शरीर स्वस्थ हो जायेगा और कोई बीमारी किसी को नहीं होगी। पर मन की बीमारी तभी जा सकती है जब हमें भगवान् वाला आनंद मिल जाए, क्योंकि कामना मन से ही पैदा होती है - एक उत्तर है, बस। यही एक दवा है। कोटि कल्प योग, तपस्या, धर्म कुछ भी करके मर जाओ, मन के रोग नहीं जाएँगे, क्योंकि ये माया के रोग हैं और माया भगवान् की शक्ति है। भगवान् की शक्ति को जीतना केवल भगवान् के बस में है - नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान। भेषज पुनि कोटिन्ह नाहिं रोग जाहिं हरि जान।
तो कामनाओं को मिटाने का साधन केवल एक है - कामना।
कामना को दूर करने का उपाय कामना ही है, यानी भगवान् सम्बन्धी कामना बना लो, बस। कामनाओं को डाइवर्ट कर दो, घुमा दो। अगर हम अपने को आत्मा मान लें, और यह बुद्धि में बिठा लें कि हम अपनी आत्मा का आनंद चाहते हैं, और वो हरि गुरु से 'ही' मिलेगा, तो उधर ममता होने लगेगी। जितनी लिमिट में बुद्धि में डिसीज़न होगा, उतनी लिमिट में भगवान् की साइड में ममता होगी। यानी भगवान् की कामना जब बढ़ने लगती है, तो संसारी कामना कम होती जाएगी। इसी को वैराग्य कहते हैं। और जब भगवान् और गुरु की कामना 100% हो जाएगी - मामेकं शरणं व्रज, तब संसार की कामना समाप्त हो जाएगी। अब जैसे संसार की कामना पूरी होती है तो लोभ पैदा होता है, वैसे ही भगवान् की कामना होने पर भी लोभ पैदा होगा कि और आनंद मिले, क्षण-क्षण प्रेम बढ़े। क्रोध भी रहेगा, कि इतने दिन हो गए पर श्यामसुन्दर नहीं मिले, मैं कितना अहंकारी हूँ, मेरे आँसू नहीं आते, मैं कितना पापी हूँ - ये गुस्सा अच्छा है क्योंकि इससे आँसू आएँगे और फीलिंग होगी तो अहंकार जाएगा। तो वही काम, क्रोध, लोभ, मोह दोष वहाँ भी रहेंगे लेकिन वो दिव्य हो जाएँगे और भगवत्प्राप्ति करा देंगे। उधर आनंद ही आनंद है।
मन एक सेकंड को खाली नहीं बैठ सकता। बुद्धि जहाँ जाने को आर्डर देगी, मन को वहॉं जाना पड़ेगा। किसी का मन बुद्धि के खिलाफ बगावत नहीं कर सकता। बुद्धि के आर्डर के कारण ही हम दिनभर के कई काम न चाहते हुए भी करते हैं। इसलिए मन की कोई गलती नहीं है। उसको किसी भी साइड में जाने से ऐतराज़ नहीं है बशर्ते वहाँ आनंद मिल जाए। गलती बुद्धि की है। हमारी बुद्धि का डिसीज़न गलत है। बुद्धि भी माया की बनी है, तो वो मायिक एरिया में हमको प्रेरित करती है। अगर गुरु भगवान् और शास्त्र वेद की बात ये बुद्धि मान ले और उस बुद्धि से मन को गवर्न किया जाय, तो कोई गड़बड़ नहीं होगी।
बुद्धि को भगवान् और गुरु की आज्ञा में जोड़ो, बस इतनी सी बात है। गुरु के वाक्य को पूर्ण सरेंडर के साथ पालन करने पर ही रत्नाकर के सरीका घोर पापी भी वाल्मीकि बन गया।
http://jkp.org.in/live-radio
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:\
Kamna Aur Upasna - Hindi
समस्त शास्त्र, वेद, संत, पंथ एक स्वर से कहते हैं कि संसार की कामनाएँ छोड़ दो तो सब दुःख चले जाएँ। सब कामनाएँ चली जाएँ तो शांति मिल जाए।
लेकिन प्रश्न ये है कि कामनाएँ चली कैसे जाएँ?
हमारी असली कामना क्या है? आनंद को पाना। उसी आनंद पाने की कामनापूर्ति के लिए हम तमाम कामनाएँ करते हैं।
हम ये चाहते हैं कि गहरी नींद में हमें जो सुख मिलता है, वो सदा मिला रहे (क्योंकि गहरी नींद में कामनाएँ नहीं रहती)। लेकिन जैसे ही आँखें खुलीं, फ़िर से कामनाएँ बन गईं। अनंत बार स्वर्ग जाने पर भी कामनाओं ने हमारा पीछा नहीं छोड़ा। भगवान् को छोड़कर कहीं भी कामना का अंत नहीं है। भगवान् का आनंद मिल जाए, तो फिर चाहे नरक, स्वर्ग, मृत्युलोक कहीं भी रहो, चाहे किसी भी योनि में रहो, आनंदमय रहोगे। लेकिन कामनाएँ तभी छूटेंगी जब भगवान् वाला आनंद मिल जाय। उससे पहले हम कामनाओं को नहीं छोड़ सकते, चाहे कोई मुँह से कुछ भी दावा कर ले। अगर हम बुद्धि से यह सोचें कि 'मैं कामना छोड़ दूँगा' - उससे कामना नहीं जाएगी।
किसी का शरीर ठीक भी हो तो मन सबसे बड़ा दुश्मन है। मन के रोग (काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि) बड़े-बड़े योगियों के पीछे पड़े हैं, साधारण मनुष्य की क्या बात है। योगिनः कृत मैत्रस्य पत्युर्जायेव पुंश्चली - करोड़ों वर्ष पत्ता और जल पीते रहने वाले योगी को भी मन के रोग नहीं छोड़ते।
अगर ये मान भी लें कि आजकल के योग से शरीर स्वस्थ हो जायेगा और कोई बीमारी किसी को नहीं होगी। पर मन की बीमारी तभी जा सकती है जब हमें भगवान् वाला आनंद मिल जाए, क्योंकि कामना मन से ही पैदा होती है - एक उत्तर है, बस। यही एक दवा है। कोटि कल्प योग, तपस्या, धर्म कुछ भी करके मर जाओ, मन के रोग नहीं जाएँगे, क्योंकि ये माया के रोग हैं और माया भगवान् की शक्ति है। भगवान् की शक्ति को जीतना केवल भगवान् के बस में है - नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान। भेषज पुनि कोटिन्ह नाहिं रोग जाहिं हरि जान।
तो कामनाओं को मिटाने का साधन केवल एक है - कामना।
कामना को दूर करने का उपाय कामना ही है, यानी भगवान् सम्बन्धी कामना बना लो, बस। कामनाओं को डाइवर्ट कर दो, घुमा दो। अगर हम अपने को आत्मा मान लें, और यह बुद्धि में बिठा लें कि हम अपनी आत्मा का आनंद चाहते हैं, और वो हरि गुरु से 'ही' मिलेगा, तो उधर ममता होने लगेगी। जितनी लिमिट में बुद्धि में डिसीज़न होगा, उतनी लिमिट में भगवान् की साइड में ममता होगी। यानी भगवान् की कामना जब बढ़ने लगती है, तो संसारी कामना कम होती जाएगी। इसी को वैराग्य कहते हैं। और जब भगवान् और गुरु की कामना 100% हो जाएगी - मामेकं शरणं व्रज, तब संसार की कामना समाप्त हो जाएगी। अब जैसे संसार की कामना पूरी होती है तो लोभ पैदा होता है, वैसे ही भगवान् की कामना होने पर भी लोभ पैदा होगा कि और आनंद मिले, क्षण-क्षण प्रेम बढ़े। क्रोध भी रहेगा, कि इतने दिन हो गए पर श्यामसुन्दर नहीं मिले, मैं कितना अहंकारी हूँ, मेरे आँसू नहीं आते, मैं कितना पापी हूँ - ये गुस्सा अच्छा है क्योंकि इससे आँसू आएँगे और फीलिंग होगी तो अहंकार जाएगा। तो वही काम, क्रोध, लोभ, मोह दोष वहाँ भी रहेंगे लेकिन वो दिव्य हो जाएँगे और भगवत्प्राप्ति करा देंगे। उधर आनंद ही आनंद है।
मन एक सेकंड को खाली नहीं बैठ सकता। बुद्धि जहाँ जाने को आर्डर देगी, मन को वहॉं जाना पड़ेगा। किसी का मन बुद्धि के खिलाफ बगावत नहीं कर सकता। बुद्धि के आर्डर के कारण ही हम दिनभर के कई काम न चाहते हुए भी करते हैं। इसलिए मन की कोई गलती नहीं है। उसको किसी भी साइड में जाने से ऐतराज़ नहीं है बशर्ते वहाँ आनंद मिल जाए। गलती बुद्धि की है। हमारी बुद्धि का डिसीज़न गलत है। बुद्धि भी माया की बनी है, तो वो मायिक एरिया में हमको प्रेरित करती है। अगर गुरु भगवान् और शास्त्र वेद की बात ये बुद्धि मान ले और उस बुद्धि से मन को गवर्न किया जाय, तो कोई गड़बड़ नहीं होगी।
बुद्धि को भगवान् और गुरु की आज्ञा में जोड़ो, बस इतनी सी बात है। गुरु के वाक्य को पूर्ण सरेंडर के साथ पालन करने पर ही रत्नाकर के सरीका घोर पापी भी वाल्मीकि बन गया।
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