भावुक लोगों की बुद्धि में मिथ्या-अहंकार है कि हम सब समझते हैं। हमें लेक्चर में इंटरेस्ट नहीं है। हम तो साधना में लगे हैं।
साधना में लगना ठीक है - लेकिन ये बहुत ऊँची अवस्था में मानना चाहिए, बोलना चाहिए, समझना चाहिए। साधारण अवस्था में आप चौबीस घंटे निरंतर साधना कर ही नहीं सकते। मन थक जाता है, बोर हो जाता है। मन की आदत है कि कुछ दूसरा सामान मिले। इसलिए वेदव्यास ने वेदांत में एक सूत्र बना दिया - आवृत्तिरसकृत उपदेशात् - यानी उपदेश को बार-बार सुनो (श्रोतव्य:), समझो, फ़िर इसका मनन भी करो (मंतव्य:)। क्योंकि अभी जो सुनने के बाद समझ में आया, वो भविष्य में खो जाएगा - तत्त्व विस्मरणात् भेकीवत् - भूल जाता है। और कलियुग में लोगों की मेमोरी बहुत कमज़ोर हो गई है। जब हम संसारी बात को भी थोड़ी देर में भूल जाते हैं, तब तत्त्वज्ञान को तो बार-बार सुनकर उसका मनन करना होगा।
जो लोग बहुत परवाह करने वाले और बड़े विरक्त हैं, वो तो मनन करेंगे ही - लेकिन 99% लोग मनन नहीं करते, चिंतन का रिविज़न नहीं करते। सुनकर समझ में आ जाने पर लोगों को मिथ्याहंकार हो जाता है। जिसके कारण वो मनन (चिंतन का रिविज़न) नहीं करते। जब बार-बार मनन होगा तभी तत्वज्ञान में दृढ़ता आएगी, पक्का होगा। तब प्रैक्टिकल होगा, सदा के लिए।
जो श्रवण किया था, कुछ समय, जैसे दस बीस दिन बीतने के बाद खो जाता है, भूल जाता है - तभी मन के तमाम दोष आ जाते हैं (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अज्ञान, दूसरे को दुःख देना आदि)।
सूत जी से शौनकादिक परमहंसों ने भागवत के प्रारम्भ में एक प्रश्न किया-
प्रायेणाल्पायुष: सभ्य कलावस्मिन् युगे जना:। मन्दा: सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुता:॥
- कलियुग में लोगों की थोड़ी-सी उमर होगी। जो सौ वर्ष की उमर कलियुग में बताई गई है वो भी किसी-किसी की होगी। वरना तो कोई दस, कोई बीस तो कोई पचास तो कोई साठ साल के - साठ साल के ऊपर जाने वाले तो कम लोग होते हैं।
- मन्दा:- उनकी मेमोरी बहुत कमज़ोर होगी और सुमन्दमतयो - बुद्धि भी मंद होगी।
तो महाराज! ऐसे जीवों के लिए कल्याण का कोई सरल उपाय हो तो बताइए। तभी काम बनेगा। सतयुग आदि में बड़ी-बड़ी साधनाएँ होती थीं। अष्टांग योग, ज्ञान मार्ग की साधना, तपश्चर्या, धर्म कर्म का अनुष्ठान आदि तो बाकी युगों में संभव था। तब तो लोगों की मेमोरी बहुत अच्छी थी। हमारे यहाँ ऐसे-ऐसे आचार्य हुए हैं जिनका नाम ही पड़ गया सुश्रुत, क्योंकि उन्होंने एक बार सुना और याद हो जाता था - न चिंतन न मनन न रिविज़न - कुछ करने की ज़रूरत नहीं थी।
तो पहले जैसे लोगों की याददाश्त होती थी वो अब नहीं रही, इसलिए हमको सावधान होकर बार-बार सुनना चाहिए। आज के युग में जो ऑडियो वीडियो आदि चल गए हैं, ये बड़े लाभ के सामान हैं। अपने घर बैठे-बैठे महापुरुष की वाणी को बार-बार सुनो, बशर्ते ये अहंकार न आने पाए कि हमको सब समझ में आ गया है। अहंकार मनुष्य का बहुत बुरा रोग है - ये उसको पकड़ लेता है। इसलिए अपनी बुद्धि में मिथ्याहंकार न लाओ। प्रैक्टिकल साधना के साथ थियरी का ज्ञान भी साथ-साथ चलता-चले तो प्रैक्टिकल साधना और तेज़ गति से होगी।
जब तक भगवत्प्राप्ति न हो जाए - ये न समझो कि हमें समझ में आ गया। प्रवचन को बार-बार सुनो - जैसे प्यार बार-बार सोचने से बढ़ता है, दुश्मनी भी बार-बार सोचने से बढ़ती है, ऐसे ही भगवद्विषय का चिंतन बार-बार करने से और दृढ़ होता है, मज़बूत रहता है। हमेशा वो ज्ञान हमारे साथ रहे - भूलने न पाए। उदाहरण के लिए, हमने महाराज जी से सुना कि
- अकेले जाना होगा - ये बार-बार सोचो और सोचो अकेले जाने लगेंगे तो कैसा लगेगा? हमारे साथ सिर्फ़ कर्म साथ जाएगा - तो कर्म को और अच्छा बना लेते हैं। जैसा कोई लोभी पैसों को बचा-बचाकर बिना खर्च किए धन इकट्ठा करता है ऐसे ही अच्छे कर्म इकट्ठा करेंगे और ध्यान रखना होगा कि जो कमाया वो खर्च न हो।
- भगवान् हमेशा हमारे आइडियाज़ नोट करते हैं - ये पक्का जानने का मतलब क्या है? हर समय ये फीलिंग में आए कि वो नोट कर रहे हैं। फिर तुमने क्रोध क्यों किया, लोभ क्यों किया, ईर्ष्या क्यों की, दूसरे के प्रति दुर्भावना क्यों किया? उसके हृदय में भी तो श्री कृष्ण बैठे हैं। फिर हम हर समय होशियार रहेंगे कि वो नोट कर लेंगे।
तत्त्वज्ञान भूलने पर आदमी पशु बन जाता है। उसी माता, पिता और गुरु की पूजा करता है। और जब क्रोध अहंकार आदि कोई रोग आया, तो दुर्भावना करने लगता है। यहाँ तक कि संसार में कुछ लोग तो अपने माँ बाप का मर्डर तक कर देते हैं। फिर बाद में पछताता है कि मैंने बड़ी बेवकूफ़ी की।
तो ये जजमेंट है कि बिना थियरी की नॉलेज को परिपक्व किए, हम हर समय प्रैक्टिकल नहीं हो सकते। हर समय प्रैक्टिकल होना, हर समय वो ज्ञान बना रहे ताकि कोई माया के दोष हमारे अंदर आकर हमारा बिगाड़ा न कर सके। जब कभी गड़बड़ हुई, इसका मतलब थियरी की नॉलेज चली गई। इसका मतलब तुमने ये लापरवाही की कि "हमको सब आता है।" आता कहाँ है? वो तो चला गया था - अब फिर आ गया, वो ठीक है, लेकिन अगर एक सेकंड को भी गया तो - सब कमाई गई। जैसे गाड़ी चलाते वक़्त हर समय ध्यान रखते हो कि आगे-पीछे-दाएँ-बाएँ कौन आ रहा है- अगर एक सेकंड को झपकी लग गयी या ध्यान नहीं दिया तो हो गया एक्सीडेंट - एक सेकंड में सत्यानाश हो जाता है। ऐसे ही अगर एक सेकंड को भी हम तत्त्व ज्ञान को भूलकर लापरवाह हो गए तो उस सेकंड में हम पता नहीं कौन सा पाप कर बैठें - कौन-सा दोष हम पर हमला कर दे - और हम भूल जाएँ कि वे अंदर बैठकर नोट कर रहे हैं - लापरवाह हो जाएँ। इसलिए बार-बार श्रवण करना चाहिए।
उच्च कोटि के साधक तो एक बार सुनने के बाद सदा को गाँठ बाँध लेते हैं - सदा के लिए उनको ज्ञान हो जाता है, अब नहीं भूलेगा - ये बहुत कम होते हैं, कभी-कभी मिलते हैं। बाकी तो सब साधारण जीव ही हैं। ये मन बहुत गड़बड़ है - उसमें तत्त्वज्ञान हमेशा भरा रहे और उसी के द्वारा हम संसार में व्यवहार करें। ऐसा करने पर भी बीच-बीच में गड़बड़ होगी, लेकिन जब लगातार पीछे लग जाएँ, तो धीरे-धीरे कम होते-होते वो दोष एक दिन खतम हो जाएँगे। कोई भी चीज़ सहसा नहीं हो जाती। एक समय हमारा ऐसा भी था कि एक अक्षर बोलने पर भी हमको बहुत मेहनत पड़ी थी। और पढ़ते-पढ़ते, दिन-रात अभ्यास करते-करते हमने आगे डिग्री भी ले ली। अब किसी के पढ़ाए बिना ही हम ठीक बोल लेते हैं।
तो बहुत सावधान होकर भीड़-भाड़ (संसार) में गाड़ी चलानी है - संसार में सब गड़बड़ वाले लोग हैं - यहाँ ऐसे लोग भरे पड़े हैं जो ऐसे-ऐसे व्यवहार करते हैं कि आपको क्रोध आए, ईर्ष्या आए - लेकिन होशियार रहो, इसको परीक्षा समझो, डटे रहो कि "मैं गुस्सा नहीं करूँगा चाहे सौ गाली दो।" ये काम क्रोध लोभ मोह आदि तके रहते हैं कि इस पर हमला करो - वही बच सकता है जो थियरी की नॉलेज को सदा पास रखता हो। वो अपने को तुरंत बचा लेता है।
गाय-भैंस पहले सब चारा जल्दी-जल्दी अपने पेट के एक पार्ट में डाल लेती हैं। फ़िर बाद में जब आराम से बैठती हैं तो उसमें से निकाल-निकाल कर दांतों से चबाती हैं, फ़िर उसे पेट के दूसरे खाने में डालती हैं। साथ-साथ वो अपने पूँछ से लगातार, बिना देर लगाए, उसे काटने वाली मक्खियों को भगाती रहती हैं। वो ज़रा सा भी असावधान नहीं होती वरना ऐसी-ऐसी मक्खियाँ भी होती हैं जो उनके चमड़े में छेद कर दें।
तो इसी तरह पहले-पहल हर समय सावधान रहना पड़ेगा। फ़िर जब अभ्यास हो जाएगा तो हम आराम से गाड़ी चला सकते हैं, एक हाथ से भी, और पीछे बैठे आदमी से बात करते-करते भी, साइड मांगने वाले को साइड देते हुए भी, फ़ोन पर बात करते हुए भी। पहले पहल तो हम परेशान हो जाते थे कि ब्रेक लगाऊँ, क्लच दबाऊँ या गियर बदलूँ। तो अभ्यास करने से सब कुछ हो जाएगा, सरल है, लेकिन पहले परिश्रम पड़ेगा। इसलिए, सिद्धांत बलिया चित्ते ना कर आलस - सिद्धान्त ज्ञान में आलस मत करो। लापरवाही न करो।
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
Tattvajnan ka Mahatva - Hindi
भावुक लोगों की बुद्धि में मिथ्या-अहंकार है कि हम सब समझते हैं। हमें लेक्चर में इंटरेस्ट नहीं है। हम तो साधना में लगे हैं।
साधना में लगना ठीक है - लेकिन ये बहुत ऊँची अवस्था में मानना चाहिए, बोलना चाहिए, समझना चाहिए। साधारण अवस्था में आप चौबीस घंटे निरंतर साधना कर ही नहीं सकते। मन थक जाता है, बोर हो जाता है। मन की आदत है कि कुछ दूसरा सामान मिले। इसलिए वेदव्यास ने वेदांत में एक सूत्र बना दिया - आवृत्तिरसकृत उपदेशात् - यानी उपदेश को बार-बार सुनो (श्रोतव्य:), समझो, फ़िर इसका मनन भी करो (मंतव्य:)। क्योंकि अभी जो सुनने के बाद समझ में आया, वो भविष्य में खो जाएगा - तत्त्व विस्मरणात् भेकीवत् - भूल जाता है। और कलियुग में लोगों की मेमोरी बहुत कमज़ोर हो गई है। जब हम संसारी बात को भी थोड़ी देर में भूल जाते हैं, तब तत्त्वज्ञान को तो बार-बार सुनकर उसका मनन करना होगा।
जो लोग बहुत परवाह करने वाले और बड़े विरक्त हैं, वो तो मनन करेंगे ही - लेकिन 99% लोग मनन नहीं करते, चिंतन का रिविज़न नहीं करते। सुनकर समझ में आ जाने पर लोगों को मिथ्याहंकार हो जाता है। जिसके कारण वो मनन (चिंतन का रिविज़न) नहीं करते। जब बार-बार मनन होगा तभी तत्वज्ञान में दृढ़ता आएगी, पक्का होगा। तब प्रैक्टिकल होगा, सदा के लिए।
जो श्रवण किया था, कुछ समय, जैसे दस बीस दिन बीतने के बाद खो जाता है, भूल जाता है - तभी मन के तमाम दोष आ जाते हैं (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अज्ञान, दूसरे को दुःख देना आदि)।
सूत जी से शौनकादिक परमहंसों ने भागवत के प्रारम्भ में एक प्रश्न किया-
प्रायेणाल्पायुष: सभ्य कलावस्मिन् युगे जना:। मन्दा: सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुता:॥
तो महाराज! ऐसे जीवों के लिए कल्याण का कोई सरल उपाय हो तो बताइए। तभी काम बनेगा। सतयुग आदि में बड़ी-बड़ी साधनाएँ होती थीं। अष्टांग योग, ज्ञान मार्ग की साधना, तपश्चर्या, धर्म कर्म का अनुष्ठान आदि तो बाकी युगों में संभव था। तब तो लोगों की मेमोरी बहुत अच्छी थी। हमारे यहाँ ऐसे-ऐसे आचार्य हुए हैं जिनका नाम ही पड़ गया सुश्रुत, क्योंकि उन्होंने एक बार सुना और याद हो जाता था - न चिंतन न मनन न रिविज़न - कुछ करने की ज़रूरत नहीं थी।
तो पहले जैसे लोगों की याददाश्त होती थी वो अब नहीं रही, इसलिए हमको सावधान होकर बार-बार सुनना चाहिए। आज के युग में जो ऑडियो वीडियो आदि चल गए हैं, ये बड़े लाभ के सामान हैं। अपने घर बैठे-बैठे महापुरुष की वाणी को बार-बार सुनो, बशर्ते ये अहंकार न आने पाए कि हमको सब समझ में आ गया है। अहंकार मनुष्य का बहुत बुरा रोग है - ये उसको पकड़ लेता है। इसलिए अपनी बुद्धि में मिथ्याहंकार न लाओ। प्रैक्टिकल साधना के साथ थियरी का ज्ञान भी साथ-साथ चलता-चले तो प्रैक्टिकल साधना और तेज़ गति से होगी।
जब तक भगवत्प्राप्ति न हो जाए - ये न समझो कि हमें समझ में आ गया। प्रवचन को बार-बार सुनो - जैसे प्यार बार-बार सोचने से बढ़ता है, दुश्मनी भी बार-बार सोचने से बढ़ती है, ऐसे ही भगवद्विषय का चिंतन बार-बार करने से और दृढ़ होता है, मज़बूत रहता है। हमेशा वो ज्ञान हमारे साथ रहे - भूलने न पाए। उदाहरण के लिए, हमने महाराज जी से सुना कि
तत्त्वज्ञान भूलने पर आदमी पशु बन जाता है। उसी माता, पिता और गुरु की पूजा करता है। और जब क्रोध अहंकार आदि कोई रोग आया, तो दुर्भावना करने लगता है। यहाँ तक कि संसार में कुछ लोग तो अपने माँ बाप का मर्डर तक कर देते हैं। फिर बाद में पछताता है कि मैंने बड़ी बेवकूफ़ी की।
तो ये जजमेंट है कि बिना थियरी की नॉलेज को परिपक्व किए, हम हर समय प्रैक्टिकल नहीं हो सकते। हर समय प्रैक्टिकल होना, हर समय वो ज्ञान बना रहे ताकि कोई माया के दोष हमारे अंदर आकर हमारा बिगाड़ा न कर सके। जब कभी गड़बड़ हुई, इसका मतलब थियरी की नॉलेज चली गई। इसका मतलब तुमने ये लापरवाही की कि "हमको सब आता है।" आता कहाँ है? वो तो चला गया था - अब फिर आ गया, वो ठीक है, लेकिन अगर एक सेकंड को भी गया तो - सब कमाई गई। जैसे गाड़ी चलाते वक़्त हर समय ध्यान रखते हो कि आगे-पीछे-दाएँ-बाएँ कौन आ रहा है- अगर एक सेकंड को झपकी लग गयी या ध्यान नहीं दिया तो हो गया एक्सीडेंट - एक सेकंड में सत्यानाश हो जाता है। ऐसे ही अगर एक सेकंड को भी हम तत्त्व ज्ञान को भूलकर लापरवाह हो गए तो उस सेकंड में हम पता नहीं कौन सा पाप कर बैठें - कौन-सा दोष हम पर हमला कर दे - और हम भूल जाएँ कि वे अंदर बैठकर नोट कर रहे हैं - लापरवाह हो जाएँ। इसलिए बार-बार श्रवण करना चाहिए।
उच्च कोटि के साधक तो एक बार सुनने के बाद सदा को गाँठ बाँध लेते हैं - सदा के लिए उनको ज्ञान हो जाता है, अब नहीं भूलेगा - ये बहुत कम होते हैं, कभी-कभी मिलते हैं। बाकी तो सब साधारण जीव ही हैं। ये मन बहुत गड़बड़ है - उसमें तत्त्वज्ञान हमेशा भरा रहे और उसी के द्वारा हम संसार में व्यवहार करें। ऐसा करने पर भी बीच-बीच में गड़बड़ होगी, लेकिन जब लगातार पीछे लग जाएँ, तो धीरे-धीरे कम होते-होते वो दोष एक दिन खतम हो जाएँगे। कोई भी चीज़ सहसा नहीं हो जाती। एक समय हमारा ऐसा भी था कि एक अक्षर बोलने पर भी हमको बहुत मेहनत पड़ी थी। और पढ़ते-पढ़ते, दिन-रात अभ्यास करते-करते हमने आगे डिग्री भी ले ली। अब किसी के पढ़ाए बिना ही हम ठीक बोल लेते हैं।
तो बहुत सावधान होकर भीड़-भाड़ (संसार) में गाड़ी चलानी है - संसार में सब गड़बड़ वाले लोग हैं - यहाँ ऐसे लोग भरे पड़े हैं जो ऐसे-ऐसे व्यवहार करते हैं कि आपको क्रोध आए, ईर्ष्या आए - लेकिन होशियार रहो, इसको परीक्षा समझो, डटे रहो कि "मैं गुस्सा नहीं करूँगा चाहे सौ गाली दो।" ये काम क्रोध लोभ मोह आदि तके रहते हैं कि इस पर हमला करो - वही बच सकता है जो थियरी की नॉलेज को सदा पास रखता हो। वो अपने को तुरंत बचा लेता है।
गाय-भैंस पहले सब चारा जल्दी-जल्दी अपने पेट के एक पार्ट में डाल लेती हैं। फ़िर बाद में जब आराम से बैठती हैं तो उसमें से निकाल-निकाल कर दांतों से चबाती हैं, फ़िर उसे पेट के दूसरे खाने में डालती हैं। साथ-साथ वो अपने पूँछ से लगातार, बिना देर लगाए, उसे काटने वाली मक्खियों को भगाती रहती हैं। वो ज़रा सा भी असावधान नहीं होती वरना ऐसी-ऐसी मक्खियाँ भी होती हैं जो उनके चमड़े में छेद कर दें।
तो इसी तरह पहले-पहल हर समय सावधान रहना पड़ेगा। फ़िर जब अभ्यास हो जाएगा तो हम आराम से गाड़ी चला सकते हैं, एक हाथ से भी, और पीछे बैठे आदमी से बात करते-करते भी, साइड मांगने वाले को साइड देते हुए भी, फ़ोन पर बात करते हुए भी। पहले पहल तो हम परेशान हो जाते थे कि ब्रेक लगाऊँ, क्लच दबाऊँ या गियर बदलूँ। तो अभ्यास करने से सब कुछ हो जाएगा, सरल है, लेकिन पहले परिश्रम पड़ेगा। इसलिए, सिद्धांत बलिया चित्ते ना कर आलस - सिद्धान्त ज्ञान में आलस मत करो। लापरवाही न करो।
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
Tattvajnan ka Mahatva - Hindi
Read Next
Ram or Krishna? Avoid the Grave Sin of Nāmāparādh!
Question - Some naive people who are devotees of Ram do not even want to sing the names of Shri Krishna. Some devotees of Shri Krishna have an aversion to Ram's name. They want a resolution to this issue. Shri Maharaj Ji's Answer - Shri Ram
Daily Devotion - Sep 24, 2025 (English)- Narad Bhakti Darshan - Part 9
The nature of desire is opposed to the nature of Bhakti. We must remain cautious of them. Whenever God descends on earth - * He says to the devotee, "varaṁ brūhi, ask for a boon, my child!" He does not wish to force anything upon anyone. Whatever you ask
Daily Devotion - Sep 21, 2025 (English)- Narad Bhakti Darshan - Part 8
Nārad Bhakti Darshan - Next Part Methods of Kīrtan * Vyās paddhati: Singing kīrtan aloud, narrating or listening to the divine pastimes of God. * Nārad paddhati: Not merely listening silently, but also singing the names, qualities, and pastimes of God aloud, accompanied by musical instruments such as harmonium, tabla, sitar, or
Daily Devotion - Sep 18, 2025 (English)- Narad Bhakti Darshan - Part 7
From Chit Shakti (Parā Shakti): (i) From Sandhini anubhāv - Shri Krishna's name, form, līlā, qualities, abode (Golok), etc. are manifested. (ii) From Samvit anubhāv - The most magnificent nectar of Shri Krishna's beauty (saundarya), sweetness (mādhurya), opulence (aiśvarya), virtuousness (sauśīlya), youthfulness (saukumārya), etc. is created.