संसार में हमारा अटैचमेंट दो ही वस्तुओं में होता है-
- जड़ वस्तु (प्रॉपर्टी, पैसे) 2) चेतन (ये खतरनाक मामला है - माँ, बाप, बेटा, भाई, बीवी, पति, नाती-पोते आदि)
यही दो बाधाएँ ऐसी हैं, जो हमें श्यामा-श्याम से मिलने नहीं दे रही हैं। ये ज़रूरी नहीं कि बहुत सारे पैसे होने पर ही धन में अटैचमेंट होगा। भिखारी के दस रुपए का नुकसान और अरबपति के करोड़ों का नुकसान होने पर दोनों एक जैसा दुःख अनुभव करते हैं। और हम जानते हैं कि एक दिन हमें 'सब कुछ' छोड़ना होगा। लेकिन जब हमारे रिश्ते नातों में कोई मर जाता है तो उनमें अटैचमेंट होने के कारण हम दुखी होते हैं।
शास्त्र वेद में भगवान् ने हमें यह कहकर रोका था - "मैंने तुमको संसार में यह कहकर भेजा कि 'केवल' मुझसे प्यार करना। बाकी जगह 'व्यवहार' करना। लेकिन पैदा होने के बाद तुमने 'उल्टा' किया - मुझसे व्यवहार किया और संसार से प्यार किया। हमारे खिलाफ बगावत किया, द्रोह किया। हमारे कानून के खिलाफ तुमने सब कुछ किया। ये सब तुमने क्यों किया? केवल एक कारण है - तुमने अपने आप को देह मान लिया। यहीं से गलती शुरू हो गई।"
"मैं" नाम की चीज़ बाहर से माँ के पेट में आयी। भगवान् ने कृपा करके हमें माँ के गर्भाशय में एक शरीर दिया। उसमें हम नौ महीने ज़िंदा रहे - सिर नीचे और पैर मिला हुआ, जिसमें अगर एक पहलवान को भी डाल दो तो वो दस घंटे भी ज़िंदा नहीं रहेगा। उस समय हमसे दुःख सहा नहीं गया। बहुत परेशान होकर हमने भगवान् से प्रार्थना की कि "मुझे इस नरक से निकालिए, मैं आपका ही भजन करूँगा।" जब किसी पर इतनी बड़ी मुसीबत आती है कि संसार में ठीक करने वाला कोई नहीं है तो बड़े से बड़े नास्तिक भी भगवान् की ओर मुड़कर उनसे कहता है कि हमको बचाओ। तो हमने भी ऐसा ही किया। भगवान् ने दया करके हमको बाहर निकाला, और पैदा होने के समय से लेकर हमारे खाने-पीने-रहने का सब प्रबंध किया।
तो हमने अपने आप को शरीर इसलिए माना कि यही पाठ हमको माँ, बाप, सब ने सिखाया। माँ ने कहा मैं ही तुम्हारी मम्मी हूँ। बाप ने कहा मैं तुम्हारा पापा हूँ। सबने इसी तरह हमको बेवक़ूफ़ बनाया और हम बनते गए। और देखते भी हैं कि सब ऐसे ही बेवक़ूफ़ बना रहे हैं। भगवान् हमारे पिता हैं - ये हमें किसी ने नहीं बताया। जब संतों ने हमें ये समझाया कि तुम शरीर नहीं आत्मा हो, हमने किसी की नहीं सुनी। हमने ये कह दिया कि, "हम भला आत्मा कैसे, हम तो शरीर दिख रहे हैं!" सब की बात को सुनकर हँस दिया और अनसुना कर दिया। हमने उसी माँ, बाप, बीवी, पति और इन्द्रियों के सुख को ही अपनाया। ये जानते हुए कि उसी वस्तु से थोड़ा सुख मिला फिर कम होते-होते खतम हो जाता है। किसी ने हमारी बात मान ली तो उससे प्यार हो गया, बात कम मानी तो उससे प्यार कम हो गया और अगर बात के खिलाफ काम किया तो क्रोध आ जाता है और उससे दिन भर लड़ाई होती है। जो हमारे चार-छः लोग जो प्यार करने वाले हैं, उनमें भी हमारा प्यार चौबीस घंटे भी एक-सा नहीं है। एक-एक मिनट में परिवर्तन होता है। फिर वही स्त्री, पति और बेटा भार लगने लगते हैं। और जो क्षणिक सुख पहले मिला था वो भी भूल गए। फिर भी हम ये मानने को तैयार नहीं होते कि हम शरीर नहीं है क्योंकि हम इन्द्रियों का सुख चाहते हैं। अपने को देह मानना ही सबसे पहली और सबसे बड़ी गलती है।
तो हमें ये ज्ञान 'परिपक्व' करना होगा -
- अपने को आत्मा मानना - ये पहली ड्यूटी।
- अपने को शरीर मानना - ये सबसे पहले गलती।
'परिपक्व' करने का मतलब ये है कि हर समय ये ज्ञान बना रहे। संसार के रिश्ते-नातों को देखकर बदल न जाएँ कि ये मेरे हैं। इसी कारण मरते समय भी बुज़ुर्ग लोग अपने नाती पोतों को बुलाते हैं।
तो ये ज्ञान केवल एक बार सुनने से पक्का नहीं होगा। बार-बार सोचना होगा - मैं आत्मा हूँ। आत्मा परमात्मा का है। जिसका जो होता है, उसको पाकर ही वो पूर्ण होता है। हमको आनंद चाहिए, शरीर का आनंद जितना भी पा लें, हम उससे कभी तृप्त नहीं होंगे (क्योंकि हम ये शरीर हैं ही नहीं)। तो हमने अपने को देह माना, इस गलती को मानें। अपने को आत्मा मानना और 'केवल' भगवान् को ('ही' लगाकर) अपना मानना हमारा एकमात्र कर्तव्य है। लेकिन भगवान् तो दिखते नहीं। तो महापुरुष के पास जाओ, वे भगवान् का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान् के पास जो ज्ञान और आनंद है, वही महापुरुष के पास भी है। भगवत्प्राप्ति पर भगवान् अपनी सारी चीज़ें महापुरुष को दे देते हैं, केवल एक चीज़ के सिवाय - जगद् व्यापारवर्जं - यानी सृष्टि करना, सर्वव्यापक होना, सब जीवों के गंदे-गंदे चिंतन को नोट करना आदि - ये सब गन्दा वर्क केवल भगवान् ही करते हैं। संसार में हम लोग काम क्रोध लोभ मोहादि गंदे गंदे चिंतन करते हैं और उसको सर्वसमर्थ भगवान् नोट करते हैं। उनको किसी से कुछ नहीं चाहिए पर वे ये सब इसलिए करते हैं कि हम उनके पुत्र हैं और वे हमसे प्यार करते हैं। वे चाहते हैं कि हमारा एक छोटा सा जीवन हैं - इसमें जो हम अच्छा काम कर रहे हैं वो हमें अगले जन्म में पका पकाया मिल जाए।
भगवान् के धाम में जाकर बैठना केवल पूर्व जन्म के साधन का फल से ही संभव हो सकता है। इसी कारण आप वहाँ जा पाए वरना हम सोच भी नहीं सकते कि धाम में जाकर गुरु जी की बातें सुननी चाहिए। बाकी लोग जिन्होंने पूर्व जन्म में कमाई नहीं की, वो नहीं जा पाए बल्कि हमारे जाने पर हमारी बुराई भी करते हैं। पूर्व जन्म की बड़ी कमाई का एक और प्रमाण ये है कि कहीं भी सफर करते समय अगर हमने किसी के मुख से 'राधे' नाम सुना तो हम चौकन्ने हो जाते हैं कि इसने राधे बोला। ये कमाल हमारे गुरु ने किया - उन्होंने परिश्रम करके हमें यहाँ तक पहुँचाया कि भगवान् का नाम सुनते ही हम उस तरफ अपने आप खिंच गए।
हमारे पूर्व जन्म की साधना और सत्संग के फलस्वरूप ही हमें महापुरुष भी मिलते हैं।
जन्मान्तरसहस्रेषु तपोज्ञानसमाधिभिः। नराणां क्षीणपापानां कृष्णे भक्तिः प्रजायते॥
राधा कृष्ण के नाम, रूप, लीला, गुण, धाम और संत से जिसके मन को आनंद मिला - ये एक जन्म की कमाई नहीं है। ये बहुत बड़ी कमाई का फल है। लेकिन इस कमाई के बाद आगे जो और कमाई कर ले, वो समझदार है। और इस कमाई के बाद और जो बिगाड़ ले - नामापराध से - भगवान् और गुरु के प्रति दुर्भावना करके - वो सब गँवाते हैं। ऐसे कमाते-गँवाते अनंत जन्म बीत गए। अगर केवल कमाते जाएँ तो अब तक अनंत भगवत्प्राप्ति हो गई होती। ये बुद्धि माया के कारण इतनी भ्रष्ट है कि वो हर जगह अपनी टांग अड़ाती है। अगर गुरु जी ने हमको डाँटा या सेवा में कुछ पैसा माँगा, तो उसको अपना सौभाग्य नहीं मानते। उल्टा ये बोलते हैं कि "इनको तो बस पैसा चाहिए।" बुद्धि से सोचो न, कि महाराज जी ने हमारे पैसों का क्या किया? जन-कल्याण किया और हमारे सत्संग के लिए इतने बड़े-बड़े हॉल बनवाये। लेकिन ये महापुरुष की ड्यूटी तो नहीं है, कि इसके लिए हमसे सेवा माँगें। ये तो हम लोगों की ड्यूटी है कि हॉल बनवाकर उनको बुलावें कि "महाराज जी, पधारिए और हमको सत्संग प्रदान कीजिये।" गुरु का हर कार्य हमारे कल्याण के लिए ही होता है। हमें उनकी किसी भी क्रिया में मायिक बुद्धि नहीं लगानी चाहिए, जिससे नामापराध हो जाए।
ये शरीर भगवान् ने हमें मूल धन के रूप में दिया था ताकि इस शरीर में साधना करके हम उनको पा लें। एक दिन हमें ये शरीर भी तजना होगा। हम निराकार आए थे माँ के पेट में, और निराकार जायेंगे। केवल पुण्य और पाप कर्म साथ जायेंगे। जितने लोगों को हमने दुःख दिया ये जानते हुए कि इसके अंदर भगवान् बैठे हैं, ये सब दंड भोगना पड़ेगा। वो दिन दूर नहीं जब 'राम नाम सत्य' हो जाएगा। फिर अगर भगवान् से हम कहें कि "एक मिनट और दे दीजिए, तो बस राधे राधे ही बोलेंगे", तो वे कहेंगे, "अब नहीं है टाइम। हमने तुमको बहुत टाइम दिया। संतों ने भी तुम्हारी बड़ी खुशामद की। उनको तुम्हारी क्या ज़रूरत है? भगवान् को भूलकर तुम दिन भर इतने पाप करते हो कि तुम इस लायक भी नहीं हो कि महापुरुष तुम्हारी शकल भी देखें। फिर भी इस आशा में कि तुम भगवान् की ओर चलोगे, वे तुमसे बात करते हैं, चिपटाते भी हैं।" महापुरुष हमारे लिए इतना परिश्रम करते हैं फिर भी हम पत्थर के पत्थर बने हुए हैं।
इसलिए वेद कहता है, अरे मनुष्यों, जागो ! उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत।
http://jkp.org.in/live-radio
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
Tattvajnan ka Mahatva - Hindi
संसार में हमारा अटैचमेंट दो ही वस्तुओं में होता है-
यही दो बाधाएँ ऐसी हैं, जो हमें श्यामा-श्याम से मिलने नहीं दे रही हैं। ये ज़रूरी नहीं कि बहुत सारे पैसे होने पर ही धन में अटैचमेंट होगा। भिखारी के दस रुपए का नुकसान और अरबपति के करोड़ों का नुकसान होने पर दोनों एक जैसा दुःख अनुभव करते हैं। और हम जानते हैं कि एक दिन हमें 'सब कुछ' छोड़ना होगा। लेकिन जब हमारे रिश्ते नातों में कोई मर जाता है तो उनमें अटैचमेंट होने के कारण हम दुखी होते हैं।
शास्त्र वेद में भगवान् ने हमें यह कहकर रोका था - "मैंने तुमको संसार में यह कहकर भेजा कि 'केवल' मुझसे प्यार करना। बाकी जगह 'व्यवहार' करना। लेकिन पैदा होने के बाद तुमने 'उल्टा' किया - मुझसे व्यवहार किया और संसार से प्यार किया। हमारे खिलाफ बगावत किया, द्रोह किया। हमारे कानून के खिलाफ तुमने सब कुछ किया। ये सब तुमने क्यों किया? केवल एक कारण है - तुमने अपने आप को देह मान लिया। यहीं से गलती शुरू हो गई।"
"मैं" नाम की चीज़ बाहर से माँ के पेट में आयी। भगवान् ने कृपा करके हमें माँ के गर्भाशय में एक शरीर दिया। उसमें हम नौ महीने ज़िंदा रहे - सिर नीचे और पैर मिला हुआ, जिसमें अगर एक पहलवान को भी डाल दो तो वो दस घंटे भी ज़िंदा नहीं रहेगा। उस समय हमसे दुःख सहा नहीं गया। बहुत परेशान होकर हमने भगवान् से प्रार्थना की कि "मुझे इस नरक से निकालिए, मैं आपका ही भजन करूँगा।" जब किसी पर इतनी बड़ी मुसीबत आती है कि संसार में ठीक करने वाला कोई नहीं है तो बड़े से बड़े नास्तिक भी भगवान् की ओर मुड़कर उनसे कहता है कि हमको बचाओ। तो हमने भी ऐसा ही किया। भगवान् ने दया करके हमको बाहर निकाला, और पैदा होने के समय से लेकर हमारे खाने-पीने-रहने का सब प्रबंध किया।
तो हमने अपने आप को शरीर इसलिए माना कि यही पाठ हमको माँ, बाप, सब ने सिखाया। माँ ने कहा मैं ही तुम्हारी मम्मी हूँ। बाप ने कहा मैं तुम्हारा पापा हूँ। सबने इसी तरह हमको बेवक़ूफ़ बनाया और हम बनते गए। और देखते भी हैं कि सब ऐसे ही बेवक़ूफ़ बना रहे हैं। भगवान् हमारे पिता हैं - ये हमें किसी ने नहीं बताया। जब संतों ने हमें ये समझाया कि तुम शरीर नहीं आत्मा हो, हमने किसी की नहीं सुनी। हमने ये कह दिया कि, "हम भला आत्मा कैसे, हम तो शरीर दिख रहे हैं!" सब की बात को सुनकर हँस दिया और अनसुना कर दिया। हमने उसी माँ, बाप, बीवी, पति और इन्द्रियों के सुख को ही अपनाया। ये जानते हुए कि उसी वस्तु से थोड़ा सुख मिला फिर कम होते-होते खतम हो जाता है। किसी ने हमारी बात मान ली तो उससे प्यार हो गया, बात कम मानी तो उससे प्यार कम हो गया और अगर बात के खिलाफ काम किया तो क्रोध आ जाता है और उससे दिन भर लड़ाई होती है। जो हमारे चार-छः लोग जो प्यार करने वाले हैं, उनमें भी हमारा प्यार चौबीस घंटे भी एक-सा नहीं है। एक-एक मिनट में परिवर्तन होता है। फिर वही स्त्री, पति और बेटा भार लगने लगते हैं। और जो क्षणिक सुख पहले मिला था वो भी भूल गए। फिर भी हम ये मानने को तैयार नहीं होते कि हम शरीर नहीं है क्योंकि हम इन्द्रियों का सुख चाहते हैं। अपने को देह मानना ही सबसे पहली और सबसे बड़ी गलती है।
तो हमें ये ज्ञान 'परिपक्व' करना होगा -
'परिपक्व' करने का मतलब ये है कि हर समय ये ज्ञान बना रहे। संसार के रिश्ते-नातों को देखकर बदल न जाएँ कि ये मेरे हैं। इसी कारण मरते समय भी बुज़ुर्ग लोग अपने नाती पोतों को बुलाते हैं।
तो ये ज्ञान केवल एक बार सुनने से पक्का नहीं होगा। बार-बार सोचना होगा - मैं आत्मा हूँ। आत्मा परमात्मा का है। जिसका जो होता है, उसको पाकर ही वो पूर्ण होता है। हमको आनंद चाहिए, शरीर का आनंद जितना भी पा लें, हम उससे कभी तृप्त नहीं होंगे (क्योंकि हम ये शरीर हैं ही नहीं)। तो हमने अपने को देह माना, इस गलती को मानें। अपने को आत्मा मानना और 'केवल' भगवान् को ('ही' लगाकर) अपना मानना हमारा एकमात्र कर्तव्य है। लेकिन भगवान् तो दिखते नहीं। तो महापुरुष के पास जाओ, वे भगवान् का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान् के पास जो ज्ञान और आनंद है, वही महापुरुष के पास भी है। भगवत्प्राप्ति पर भगवान् अपनी सारी चीज़ें महापुरुष को दे देते हैं, केवल एक चीज़ के सिवाय - जगद् व्यापारवर्जं - यानी सृष्टि करना, सर्वव्यापक होना, सब जीवों के गंदे-गंदे चिंतन को नोट करना आदि - ये सब गन्दा वर्क केवल भगवान् ही करते हैं। संसार में हम लोग काम क्रोध लोभ मोहादि गंदे गंदे चिंतन करते हैं और उसको सर्वसमर्थ भगवान् नोट करते हैं। उनको किसी से कुछ नहीं चाहिए पर वे ये सब इसलिए करते हैं कि हम उनके पुत्र हैं और वे हमसे प्यार करते हैं। वे चाहते हैं कि हमारा एक छोटा सा जीवन हैं - इसमें जो हम अच्छा काम कर रहे हैं वो हमें अगले जन्म में पका पकाया मिल जाए।
भगवान् के धाम में जाकर बैठना केवल पूर्व जन्म के साधन का फल से ही संभव हो सकता है। इसी कारण आप वहाँ जा पाए वरना हम सोच भी नहीं सकते कि धाम में जाकर गुरु जी की बातें सुननी चाहिए। बाकी लोग जिन्होंने पूर्व जन्म में कमाई नहीं की, वो नहीं जा पाए बल्कि हमारे जाने पर हमारी बुराई भी करते हैं। पूर्व जन्म की बड़ी कमाई का एक और प्रमाण ये है कि कहीं भी सफर करते समय अगर हमने किसी के मुख से 'राधे' नाम सुना तो हम चौकन्ने हो जाते हैं कि इसने राधे बोला। ये कमाल हमारे गुरु ने किया - उन्होंने परिश्रम करके हमें यहाँ तक पहुँचाया कि भगवान् का नाम सुनते ही हम उस तरफ अपने आप खिंच गए।
हमारे पूर्व जन्म की साधना और सत्संग के फलस्वरूप ही हमें महापुरुष भी मिलते हैं।
जन्मान्तरसहस्रेषु तपोज्ञानसमाधिभिः। नराणां क्षीणपापानां कृष्णे भक्तिः प्रजायते॥
राधा कृष्ण के नाम, रूप, लीला, गुण, धाम और संत से जिसके मन को आनंद मिला - ये एक जन्म की कमाई नहीं है। ये बहुत बड़ी कमाई का फल है। लेकिन इस कमाई के बाद आगे जो और कमाई कर ले, वो समझदार है। और इस कमाई के बाद और जो बिगाड़ ले - नामापराध से - भगवान् और गुरु के प्रति दुर्भावना करके - वो सब गँवाते हैं। ऐसे कमाते-गँवाते अनंत जन्म बीत गए। अगर केवल कमाते जाएँ तो अब तक अनंत भगवत्प्राप्ति हो गई होती। ये बुद्धि माया के कारण इतनी भ्रष्ट है कि वो हर जगह अपनी टांग अड़ाती है। अगर गुरु जी ने हमको डाँटा या सेवा में कुछ पैसा माँगा, तो उसको अपना सौभाग्य नहीं मानते। उल्टा ये बोलते हैं कि "इनको तो बस पैसा चाहिए।" बुद्धि से सोचो न, कि महाराज जी ने हमारे पैसों का क्या किया? जन-कल्याण किया और हमारे सत्संग के लिए इतने बड़े-बड़े हॉल बनवाये। लेकिन ये महापुरुष की ड्यूटी तो नहीं है, कि इसके लिए हमसे सेवा माँगें। ये तो हम लोगों की ड्यूटी है कि हॉल बनवाकर उनको बुलावें कि "महाराज जी, पधारिए और हमको सत्संग प्रदान कीजिये।" गुरु का हर कार्य हमारे कल्याण के लिए ही होता है। हमें उनकी किसी भी क्रिया में मायिक बुद्धि नहीं लगानी चाहिए, जिससे नामापराध हो जाए।
ये शरीर भगवान् ने हमें मूल धन के रूप में दिया था ताकि इस शरीर में साधना करके हम उनको पा लें। एक दिन हमें ये शरीर भी तजना होगा। हम निराकार आए थे माँ के पेट में, और निराकार जायेंगे। केवल पुण्य और पाप कर्म साथ जायेंगे। जितने लोगों को हमने दुःख दिया ये जानते हुए कि इसके अंदर भगवान् बैठे हैं, ये सब दंड भोगना पड़ेगा। वो दिन दूर नहीं जब 'राम नाम सत्य' हो जाएगा। फिर अगर भगवान् से हम कहें कि "एक मिनट और दे दीजिए, तो बस राधे राधे ही बोलेंगे", तो वे कहेंगे, "अब नहीं है टाइम। हमने तुमको बहुत टाइम दिया। संतों ने भी तुम्हारी बड़ी खुशामद की। उनको तुम्हारी क्या ज़रूरत है? भगवान् को भूलकर तुम दिन भर इतने पाप करते हो कि तुम इस लायक भी नहीं हो कि महापुरुष तुम्हारी शकल भी देखें। फिर भी इस आशा में कि तुम भगवान् की ओर चलोगे, वे तुमसे बात करते हैं, चिपटाते भी हैं।" महापुरुष हमारे लिए इतना परिश्रम करते हैं फिर भी हम पत्थर के पत्थर बने हुए हैं।
इसलिए वेद कहता है, अरे मनुष्यों, जागो ! उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत।
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