हम कैसे जानें कि हमारा कितना उत्थान पतन हुआ है ?ये अपने आप कोई जान नहीं सकता। जिस मन में ऊँचाई निचाई होती है, वो मन अपने खिलाफ जजमेंट नहीं दे सकता। अर्थात् हमारा मन गड़बड़ है और उसी मन से हम पूछ रहे हैं - "क्यों, गड़बड़ है?" वो तो यही कहेगा - "बिल्कुल नहीं!" ये तो केवल भगवान् और महापुरुष जान सकते हैं कि कौन कहाँ है। लेकिन थोड़ा बहुत आइडिया फिलॉसफी के द्वारा हो सकता है, और वह होना चाहिए। सबको नापना चाहिए।
यावत् पापैस्तु मलिनं हृदयं तावदेव हि। (ब्रह्म वैवर्त पुराण)
जिसका हृदय जितना पापयुक्त होता है वो उतनी ही गंदी बातें (संसारी, निन्दनीय, पापयुक्त बातें) सोचता, सुनता और बोलता है। अगर हम दूसरे में दोष देखने की सोचते हैं - यह पक्का प्रमाण है कि हमारा मन पापयुक्त है। वरना हमारा मन अनंत पापयुक्त है, उसको न सोचकर दूसरे के दोष के बारे में क्यों सोचें? दूसरे के प्रति गंदी , दोष भावना आई, इसका मतलब तुम निर्दोष हो और निर्दोष भगवत्प्राप्ति के पहले कोई नहीं। दूसरे के प्रति गंदी बात सोचा ही नहीं बल्कि बढ़ा-चढ़ाकर औरों को, जो भगवान् के चिंतन कर रहे हों, उनको भी बताकर और पाप कर डाला। उनके चिंतन को भी खराब करके, खुद का ही नहीं दूसरे का भी नुकसान कर देते हैं। इसी तरह नामापराध भी कर बैठते हैं। सत्संग करते हैं और साथ-साथ ये पाप भी करते जाते हैं। हमें दूसरों की गंदी बातें सुनना भी नहीं चाहिए। सुना या सुनने में रुचि हुई, तो ये पक्का प्रमाण है कि हमारा मन पापयुक्त है। संसार में अगर हमें कोई खाने के लिए गोबर के लड्डू जैसी गंदी चीज़ दे, तो हम क्या कहेंगे? "बदतमीज़!" और दूसरे के दिए हुए गंदी चीज़ हम ठाठ से खाए जा रहे हैं? ये माया का जगत् है, यहाँ तो सब खराब है ही है। लेकिन हम को तो अपने मन की खराबी को साफ़ करनी है, बाहर से और गन्दगी नहीं लानी है।
अपने को अधम, पतित, गुनहगार, दीन मानना चाहिए। हमारा मन तमाम जन्मों का एक गन्दा कपडा है। उसे साफ़ करने के लिए निर्मल पानी चाहिए। भगवान् और गुरु निर्मल हैं। इनको जितनी बार मन में लाओगे उतना शुद्ध होगा। अगर मन में गंदी बातें लाओगे तो और गन्दा होगा - बड़ी सीधी सी बात है।
सोते समय 5 मिनट सोचो - आज हमने कहाँ कहाँ गंदी बात सोची और क्यों सोची। हमारे मन को हर समय ये इच्छा होनी चाहिए कि कोई भगवद्विषय सुनाएं या हम खुद सोचें, या कोई किताब ही पढ़ें - इन सब से चिंतन होगा। या कम से कम बचें तो। ये मत सोचो कि "चलो, बाज़ार चलकर कुछ खाकर आते हैं।" इंद्रियों, मन पर, जबान पर कण्ट्रोल करना चाहिए। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए सोच लो कि कहाँ हो (आपका कितना उत्थान पतन हुआ है)।
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
Atma Nirikshan - Hindi
Atma Nirikshan - Hindi Ebook
हम कैसे जानें कि हमारा कितना उत्थान पतन हुआ है ?ये अपने आप कोई जान नहीं सकता। जिस मन में ऊँचाई निचाई होती है, वो मन अपने खिलाफ जजमेंट नहीं दे सकता। अर्थात् हमारा मन गड़बड़ है और उसी मन से हम पूछ रहे हैं - "क्यों, गड़बड़ है?" वो तो यही कहेगा - "बिल्कुल नहीं!" ये तो केवल भगवान् और महापुरुष जान सकते हैं कि कौन कहाँ है। लेकिन थोड़ा बहुत आइडिया फिलॉसफी के द्वारा हो सकता है, और वह होना चाहिए। सबको नापना चाहिए।
यावत् पापैस्तु मलिनं हृदयं तावदेव हि। (ब्रह्म वैवर्त पुराण)
जिसका हृदय जितना पापयुक्त होता है वो उतनी ही गंदी बातें (संसारी, निन्दनीय, पापयुक्त बातें) सोचता, सुनता और बोलता है। अगर हम दूसरे में दोष देखने की सोचते हैं - यह पक्का प्रमाण है कि हमारा मन पापयुक्त है। वरना हमारा मन अनंत पापयुक्त है, उसको न सोचकर दूसरे के दोष के बारे में क्यों सोचें? दूसरे के प्रति गंदी , दोष भावना आई, इसका मतलब तुम निर्दोष हो और निर्दोष भगवत्प्राप्ति के पहले कोई नहीं। दूसरे के प्रति गंदी बात सोचा ही नहीं बल्कि बढ़ा-चढ़ाकर औरों को, जो भगवान् के चिंतन कर रहे हों, उनको भी बताकर और पाप कर डाला। उनके चिंतन को भी खराब करके, खुद का ही नहीं दूसरे का भी नुकसान कर देते हैं। इसी तरह नामापराध भी कर बैठते हैं। सत्संग करते हैं और साथ-साथ ये पाप भी करते जाते हैं। हमें दूसरों की गंदी बातें सुनना भी नहीं चाहिए। सुना या सुनने में रुचि हुई, तो ये पक्का प्रमाण है कि हमारा मन पापयुक्त है। संसार में अगर हमें कोई खाने के लिए गोबर के लड्डू जैसी गंदी चीज़ दे, तो हम क्या कहेंगे? "बदतमीज़!" और दूसरे के दिए हुए गंदी चीज़ हम ठाठ से खाए जा रहे हैं? ये माया का जगत् है, यहाँ तो सब खराब है ही है। लेकिन हम को तो अपने मन की खराबी को साफ़ करनी है, बाहर से और गन्दगी नहीं लानी है।
अपने को अधम, पतित, गुनहगार, दीन मानना चाहिए। हमारा मन तमाम जन्मों का एक गन्दा कपडा है। उसे साफ़ करने के लिए निर्मल पानी चाहिए। भगवान् और गुरु निर्मल हैं। इनको जितनी बार मन में लाओगे उतना शुद्ध होगा। अगर मन में गंदी बातें लाओगे तो और गन्दा होगा - बड़ी सीधी सी बात है।
सोते समय 5 मिनट सोचो - आज हमने कहाँ कहाँ गंदी बात सोची और क्यों सोची। हमारे मन को हर समय ये इच्छा होनी चाहिए कि कोई भगवद्विषय सुनाएं या हम खुद सोचें, या कोई किताब ही पढ़ें - इन सब से चिंतन होगा। या कम से कम बचें तो। ये मत सोचो कि "चलो, बाज़ार चलकर कुछ खाकर आते हैं।" इंद्रियों, मन पर, जबान पर कण्ट्रोल करना चाहिए। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए सोच लो कि कहाँ हो (आपका कितना उत्थान पतन हुआ है)।
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
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