साधक का प्रश्न - मुरली के बारे में ऐसे लिखा गया है, जैसे आपका भी एक पद है कबहुँ सखि हमहुँ देखिहौं श्याम (प्रेम रस मदिरा, दैन्य माधुरी, पद सं. 19) - उसमें लिखा है "कह 'कृपालु' इक और मुरलीधुनि, घायल कर अविराम"। तो मुरली को क्यों कहा है कि वह सबसे ज़्यादा घायल करने वाली है?
श्री महाराज जी का उत्तर - इसका ये मतलब नहीं है। (इस पद में गोपी ने कहा कि) वो इससे घायल हुई है। कृपालु ने कहा कि याद दिला दूँ कि एक चीज़ भूल गई तू। मुरली भी है एक। इसमें ऐसा है कि कुछ विषय तो चक्षुरिन्द्रिय के होते हैं (आँखों से दर्शन)। लेकिन जिसको वो नहीं मिल रहा, उसका मुरली धुनि से काम बन जाता है। वो चाहे शंकर जी हों जो समाधी में बैठे हों, मुरली काम दे गई और वे भागे वृन्दावन की ओर। तो जहाँ चक्षु का विषय नहीं हल हो रहा, वहाँ मुरली काम करती है। और जब चक्षु का विषय हल हो गया, तो वहाँ तमाम चीज़ें काम करती हैं।
श्री कृष्ण का शरीर, शरीरी से भिन्न नहीं है। इसलिए उनके हरेक रोम में वही आनंद का वैलक्षण्य प्रतिक्षण वर्धमान और नितनवायमान है। इसलिए वहाँ 'सर्वाधिक' (रस) का प्रश्न ही नहीं है। मनुष्य के शरीर में एक उत्तम इन्द्रिय है, एक मध्यम शरीर है और एक निकृष्ट शरीर है- ऐसे मनुष्य के शरीर में अलग-अलग क्लास होते हैं। लेकिन ठाकुर जी के शरीर में ऐसे क्लास नहीं होते। उनके पूरे शरीर में एक सा रस है - क्योंकि उनका शरीर रस का ही बना है। इसलिए चाहे जैसे चीनी का घोड़ा खाओ, चाहे चीनी का हाथी खाओ, चाहे चीनी का साहब खाओ - सब में वही चीनी है। इसमें सर्वाधिक मीठा क्या है - चीनी के साहब के नाक, कि आँख, कि दांत? सभी सर्वाधिक मीठे हैं।
प्रश्न - तो महाराज जी मुरली सबसे ऊँचे भाव की क्यों कही जाती है?
श्री महाराज जी का उत्तर - मुरली की ध्वनि बिना दर्शन के भी सुनाई पड़ सकती है। वो कान का विषय है।
और उनके कृपा करने के साधन सब अलग-अलग हैं।
कान्ह की जादूभरी मुस्कान - ये श्री महाराज जी का पद है (प्रेम रस मदिरा, श्री कृष्ण माधुरी)-
जिन देखी तिन बिसरि गई छिन... - जिसने देखा तो वहाँ आँख काम कर गयी। वो तो नेचुरल गया। (यानी सुधबुध खो बैठा)
जिन नहिं देखी, सुनी तिनहुँ मन, लहकत सुनि गुन-गान।
जिसने नहीं देखी, उसका काम मुरली की तान से हो गया।
'जिन नहिं देखी' - जिसने नहीं देखा, 'तिन देखन कहँ, टेरत मुरलिहिं तान' उसको देखने को लालायित करने के लिए श्री कृष्ण ने मुरली बजाई। ताकि वो ये सोचकर लालायित हो जाए कि "कौन इतनी मधुर मुरली बजा रहा है।"
और जिसने नहीं देखी और नहीं सुनी, तो उनके गुणगान से हो गया, वो भी गया। शुकदेव परमहंस गुणगान से ही तो गए। तुम लोग भी तो गुणगान से ही तो जा रहे हो।
(बहुत से लोग श्री महाराज जी के कैसेट सुनकर ही उनके सत्संग में आ जाते हैं।)
ठाकुर जी के प्रति शरणागति या आकर्षण केवल वर्तमान काल के ही नहीं है। वर्त्तमान में तो ये प्रकट हुए, लेकिन ऐसा नहीं है कि उसी समय अकस्मात् ऐसा हो गया - ये बहुत पुराना सम्बन्ध है। साधनाओं का फल रूप बनकर भगवान् दिलाते हैं और प्रेरणा देते हैं कि उधर चलो, खिंचो, आगे चलो। ये सब बिना प्रयत्न के मशीन की तरह चलता है।
साधक - महाराज जी हम बहुत गलत रास्ते पर चल रहे थे। फिर आपके सत्संगी बने।
श्री महाराज जी - गलत तो अब भी हो। अभी सही थोड़े ही हुए हो। ज़रा सी कोई बात कहे तो भड़क जाते हो।
शंकराचार्य के पास एक विद्वान उनके शिष्य बनने गए। शंकराचार्य ने कहा कि तुम अधिकारी नहीं हो। तो पंडित जी ने कहा "माफ़ कीजिएगा - हमसे शास्त्रार्थ कर लीजिए।" शंकराचार्य ने कहा, "तुम शिष्य बनने आए थे और हम पर ही हमला करने लगे। ऐसा करो कल आना - तब तक हम सोचेंगे।" दूसरे दिन उसके आने के पहले शंकराचार्य ने कहा,"यहाँ एक विद्वान आने वाला है। तुम झाड़ू लगाते हो न - जब वो पास आ जाए तो उसके ऊपर झाड़ू से धूल उड़ा देना।"
जब भंगिन ने उनपर झाड़ू से धूल उड़ा दिया, तो उसने पचासों करि-कोटि सुना दिया कि "अंधी है तुम्हे दिखाई नहीं पड़ता है, हमको अपवित्र कर दिया।" फिर जब वो शंकराचार्य के पास आए तो उन्होंने कहा, "तुम तो अभी लोगों को खाने दौड़ते हो - तुम ब्रह्मज्ञान के अधिकारी कैसे हो सकते हो? जाओ गोवर्धन परिक्रमा करो, भजन करो और श्री कृष्ण की भक्ति करो - एक साल। जब अन्तःकरण शुद्ध हो जाए तो मेरे पास आना।" एक साल साधना करके जब वो वापस आया तो शंकराचार्य ने उस भंगिन से कहा कि अब उसने एक साल साधना कर ली है केवल उसके ऊपर धूल उड़ाने से काम नहीं चलेगा, झाड़ू चलाते चलाते उसके पैर में छुआ देना और बोल देना की गलती से छू गया।" उसने वैसे ही किया तो पंडित जी ने दांत को पीसकर उसकी और गुस्से से देखे और आगे चले शंकराचार्य के पास। तो शंकराचार्य ने कहा अभी तुम्हारा अंतःकरण शुद्ध नहीं हुआ, तुम तो अभी भी गुर्राते हो। अभी तुमको विद्वान, ब्राह्मण आदि होने का देहाभिमान है। जाओ और साधना करो।"
फिर वो रोते गाते रहे, राधा कृष्ण से प्रार्थना करते रहे कि "ऐसी कृपा करो कि गुरुजी हमको अपनाने लें।" फिर उसका अंतःकरण शुद्ध हुआ। उसने डटकर साधना की। तुम्हारी तरह नहीं - जैसा मन में आया साधना किया, मन में आया संसार या सत्संगियों का अंडबंड चिंतन किया, मन में आया तो किसी में दोष देख रहे हैं, मन में आया सो गए - ऐसे नहीं। उसने चौबीस घंटे साधना की - तैलधारावदविच्छिन्न, यथा गङ्गांभसोऽम्बुधौ (जैसे गंगा जी का जल निरंतर समुद्र में गिरता है)।
फिर इस बार शंकराचार्य ने उस भंगिन से कहा कि "इस बार केवल झाड़ू छुआने से गुस्सा नहीं करेगा- उस कचड़े को टोकरे को उसके सिर के ऊपर डाल देना।" भंगिन ने ऐसा किया तो वो उसके चरणों में पड़ गए और कहा कि "माँ ! तुमने ही हमको गुरुजी के पास तक पहुँचाया!"
तो अभी सही नहीं हुए हो, ये सोचना भी मत कभी भूलकर भी। जब तक देहाभिमान है, अहंकार है, दूसरे की अपमान और गाली को सहर्ष सहन करने की शक्ति न हो जाये, तब तक सही नहीं हो। चाहे वो सोचा करे वो सही है - जब तक कोई सोचता है कि मैं सही हो गया हूँ, तब तक वो सही नहीं होता। जितना आगे बढ़ोगे उतने सोचोगे कि मैं कभी सही नहीं हो सकता - यही सही की पहचान है। अभी तो तुम्हें शब्द की फीलिंग होती है - इतना स्तर नीचे है, कि गुरु को भी तुरंत जवाब देते हो। अब तो बहुत गड़बड़ है। गड़बड़ी ठीक करने का अभी तुमने कभी प्रयत्न ही नहीं किया जैसे बच्चे परीक्षा के चार दिन पहले चाय पीकर पढ़ने में दिन-रात एक कर देते हैं। इस प्रकार की साधना तुमने एक महीने भी नहीं की। दूसरे के प्रति दुर्भावना करने की भयंकर बीमारी है, कि ये खराब है वो खराब है, ये ऐसा है वो वैसा है। इससे अहंकार बढ़ता है। उसको मिटाते नहीं हो।
कितने साधक हमारे देश में वास्तविक महापुरुष के शरणागत न होकर स्वयं से साधना करते हैं-
थोड़ी उन्नति होने पर, एक आनंद के (श्यामसुंदर की) आभास की लहर आने पर ही अहंकार उसको दबोच लेता है और वो बड़े कॉन्फिडेंस के साथ लोगों को कहता है कि हमको भगवत्प्राप्ति हो गई। अपना ही बनाया हुआ ध्यान किसी समय इतना अधिक सुन्दर बन गया कि उसको ऐसी फीलिंग हुई कि श्यामसुंदर प्रत्यक्ष दिखे। लेकिन वो वास्तव में दर्शनाभास है। भाव भक्ति में ये सब होता रहता है। अगर सही गुरु नहीं है तो वो कह देगा कि हाँ भगवत्प्राप्ति हो गई। लेकिन सही गुरु ये कहेंगे कि धोखे में न पड़ो, आगे बढ़ते जाओ, अभी मंज़िल दूर है। कदम-कदम पर गुरु की ज़रूरत है।
तुम लोग अजगर की चाल से चल रहे हो जो सबसे धीमा चलता है। अभी तुम लोगों ने सोचा ही नहीं कल हम मर सकते हैं। वरना रात भर न सोते, डट जाते एक दम। जिस स्पीड से कोई चलेगा उसी हिसाब से तो मंज़िल तक का रास्ता तय होगा। बस इसी बात का संतोष है हम को भी कि रास्ता सही पकड़े हो। अगर इसी रास्ते में चलते जाओगे तो एक दिन पहुँचोगे। बाकी जिस तरह चलना चाहिए उस तरह कोई भी नहीं चल रहा है। कीर्तन में भी गड़बड़ कर रहे हो और कीर्तन के बाद भी दिनभर बेकार की बातें करते हो। इस दो पैसे की खोपड़ी से जो शब्द निकलेंगे, वो तुम्हारा अनर्थ ही तो करेंगे। और ऐसा नहीं कि केवल युवक ही ऐसे करते हैं - जिनको ये पता है कि हम किसी भी दिन मर सकते हैं ऐसे बुज़ुर्ग लोग भी अनावश्यक बात करते हैं। अगर कीर्तन नहीं चल रहा है तो उस समय उससे बड़ी साधना तुम करो - एक जगह बैठकर भगवान् के लिए आँसू बहाओ। ऐसा तो नहीं हैं कि जब कीर्तन हो तभी साधना है।
साधक का प्रश्न - श्यामसुंदर का आभास भी तो गुरुकृपा से ही तो होता है?
ये सब तो ठीक है कि भगवत्कृपा और गुरु कृपा से ही भगवान् का एक नाम भी निकलता है। लेकिन उस कृपा को रियलाइज़ करके सदुपयोग करना ये तुम्हारा काम है। इससे साधना बढ़ती है। भगवत्कृपा और गुरु-कृपा को सदा मानना ही है, वो तो सिद्धांत ही है वरना अनंत जन्मों का बिगड़ा हुआ ये मन भगवान् का नाम ले, ये कैसे पॉसिबल होता। लेकिन कृपा का मतलब ये नहीं की भगवान् या गुरु तुमको डाइरेक्ट भगवत्प्राप्ति करा देंगे - साधना करके आगे बढ़ना तुम्हारा काम है। उनकी पहली कृपा ये है कि हमको मानव देह मिला। फिर हमारा जन्म उस घर में हुआ जहाँ लोग नास्तिक नहीं थे। फिर हमको किसी व्यक्ति का संग मिला जिसने भगवान् के विषय में तुम्हे बताया और कुछ किताबें पढ़ने को दी। फिर ये संजोग लगते लगते हम सही जगह पहुँच गए। वहाँ तत्त्वज्ञान भी हो गया। फिर हमने साधना शुरू की। ये सर्वत्र भगवत्कृपा और गुरुकृपा है। ये मन जिससे योगी लोग हार गए, उस मन को श्री महाराज जी ने यहाँ तक पहुँचा दिया कि अगर हम कहीं बस में जा रहे हों और किसी ने अंगड़ाई लेते हुए "राधे" बोला - तो हम चौंक जाते हैं कि इसने 'राधे' बोला - उससे तुम्हारी कितना ममता हो गई की उससे बात किए बिना बेचैन हो जाते हो। ये सब तुम्हारे अंदर की फीलिंग है - ये बहुत बड़ी बात है। ये माइलस्टोन है।
सबसे बड़ा दोष दूसरे में दोष देखना और दूसरे को अपने से छोटा मानना है - ये दोष इतना भयंकर है कि सब अच्छाई बरबाद कर देता है। भगवान् और गुरु के प्रति सोचना तो सबसे बड़ा अपराध है ही - वो नामापराध है, लेकिन साधक-साधक के प्रति दोष चिंतन करना भी खतरनाक है। जिस मन से हरि-गुरु का चिंतन करना है उसी मन से दोष का चिंतन करना तो कपड़े में बार-बार साबुन लगाकर गन्दगी में डुबाने जैसा है। मन को ऐसे स्वच्छंद छोड़कर 'मैं सब समझता हूँ' - ये अहंकार पैदा कर लेना, ये सब भयंकर दुश्मन हैं। ये सब तैयार रहते हैं कि इसको नीचे गिरावें और तुम लापरवाह रहते हो।
वरना - क्षणशः क्षणशोऽविद्या। कणशः कणशोऽधनं - एक एक पैसे के लिए जैसे लोभी लखपति प्रयत्न करता है, उसी प्रकार एक एक क्षण का भगवदीय उपयोग हो, कम से कम तब जब संसार के काम से रहित हो। निरर्थक बातें नहीं करो। हरि गुरु को सदा सर्वत्र जो अपने साथ न मानेगा वो पूरी तरह से नास्तिक है - अस्तीत्येवोपलब्धस्य तत्त्वभावः प्रसीदति - सदा भगवान् देख रहा है, सुन रहा है, सोच रहा है, समझ रहा है, हमारे साथ है, ये फीलिंग गई कि वो नास्तिक हो गया।
http://jkp.org.in/live-radio
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
Prashnottari (Vol. 1-3) - Hindi
साधक का प्रश्न - मुरली के बारे में ऐसे लिखा गया है, जैसे आपका भी एक पद है कबहुँ सखि हमहुँ देखिहौं श्याम (प्रेम रस मदिरा, दैन्य माधुरी, पद सं. 19) - उसमें लिखा है "कह 'कृपालु' इक और मुरलीधुनि, घायल कर अविराम"। तो मुरली को क्यों कहा है कि वह सबसे ज़्यादा घायल करने वाली है?
श्री महाराज जी का उत्तर - इसका ये मतलब नहीं है। (इस पद में गोपी ने कहा कि) वो इससे घायल हुई है। कृपालु ने कहा कि याद दिला दूँ कि एक चीज़ भूल गई तू। मुरली भी है एक। इसमें ऐसा है कि कुछ विषय तो चक्षुरिन्द्रिय के होते हैं (आँखों से दर्शन)। लेकिन जिसको वो नहीं मिल रहा, उसका मुरली धुनि से काम बन जाता है। वो चाहे शंकर जी हों जो समाधी में बैठे हों, मुरली काम दे गई और वे भागे वृन्दावन की ओर। तो जहाँ चक्षु का विषय नहीं हल हो रहा, वहाँ मुरली काम करती है। और जब चक्षु का विषय हल हो गया, तो वहाँ तमाम चीज़ें काम करती हैं।
श्री कृष्ण का शरीर, शरीरी से भिन्न नहीं है। इसलिए उनके हरेक रोम में वही आनंद का वैलक्षण्य प्रतिक्षण वर्धमान और नितनवायमान है। इसलिए वहाँ 'सर्वाधिक' (रस) का प्रश्न ही नहीं है। मनुष्य के शरीर में एक उत्तम इन्द्रिय है, एक मध्यम शरीर है और एक निकृष्ट शरीर है- ऐसे मनुष्य के शरीर में अलग-अलग क्लास होते हैं। लेकिन ठाकुर जी के शरीर में ऐसे क्लास नहीं होते। उनके पूरे शरीर में एक सा रस है - क्योंकि उनका शरीर रस का ही बना है। इसलिए चाहे जैसे चीनी का घोड़ा खाओ, चाहे चीनी का हाथी खाओ, चाहे चीनी का साहब खाओ - सब में वही चीनी है। इसमें सर्वाधिक मीठा क्या है - चीनी के साहब के नाक, कि आँख, कि दांत? सभी सर्वाधिक मीठे हैं।
प्रश्न - तो महाराज जी मुरली सबसे ऊँचे भाव की क्यों कही जाती है?
श्री महाराज जी का उत्तर - मुरली की ध्वनि बिना दर्शन के भी सुनाई पड़ सकती है। वो कान का विषय है।
और उनके कृपा करने के साधन सब अलग-अलग हैं।
कान्ह की जादूभरी मुस्कान - ये श्री महाराज जी का पद है (प्रेम रस मदिरा, श्री कृष्ण माधुरी)-
जिन देखी तिन बिसरि गई छिन... - जिसने देखा तो वहाँ आँख काम कर गयी। वो तो नेचुरल गया। (यानी सुधबुध खो बैठा)
जिन नहिं देखी, सुनी तिनहुँ मन, लहकत सुनि गुन-गान।
जिसने नहीं देखी, उसका काम मुरली की तान से हो गया।
'जिन नहिं देखी' - जिसने नहीं देखा, 'तिन देखन कहँ, टेरत मुरलिहिं तान' उसको देखने को लालायित करने के लिए श्री कृष्ण ने मुरली बजाई। ताकि वो ये सोचकर लालायित हो जाए कि "कौन इतनी मधुर मुरली बजा रहा है।"
और जिसने नहीं देखी और नहीं सुनी, तो उनके गुणगान से हो गया, वो भी गया। शुकदेव परमहंस गुणगान से ही तो गए। तुम लोग भी तो गुणगान से ही तो जा रहे हो।
(बहुत से लोग श्री महाराज जी के कैसेट सुनकर ही उनके सत्संग में आ जाते हैं।)
ठाकुर जी के प्रति शरणागति या आकर्षण केवल वर्तमान काल के ही नहीं है। वर्त्तमान में तो ये प्रकट हुए, लेकिन ऐसा नहीं है कि उसी समय अकस्मात् ऐसा हो गया - ये बहुत पुराना सम्बन्ध है। साधनाओं का फल रूप बनकर भगवान् दिलाते हैं और प्रेरणा देते हैं कि उधर चलो, खिंचो, आगे चलो। ये सब बिना प्रयत्न के मशीन की तरह चलता है।
साधक - महाराज जी हम बहुत गलत रास्ते पर चल रहे थे। फिर आपके सत्संगी बने।
श्री महाराज जी - गलत तो अब भी हो। अभी सही थोड़े ही हुए हो। ज़रा सी कोई बात कहे तो भड़क जाते हो।
शंकराचार्य के पास एक विद्वान उनके शिष्य बनने गए। शंकराचार्य ने कहा कि तुम अधिकारी नहीं हो। तो पंडित जी ने कहा "माफ़ कीजिएगा - हमसे शास्त्रार्थ कर लीजिए।" शंकराचार्य ने कहा, "तुम शिष्य बनने आए थे और हम पर ही हमला करने लगे। ऐसा करो कल आना - तब तक हम सोचेंगे।" दूसरे दिन उसके आने के पहले शंकराचार्य ने कहा,"यहाँ एक विद्वान आने वाला है। तुम झाड़ू लगाते हो न - जब वो पास आ जाए तो उसके ऊपर झाड़ू से धूल उड़ा देना।"
जब भंगिन ने उनपर झाड़ू से धूल उड़ा दिया, तो उसने पचासों करि-कोटि सुना दिया कि "अंधी है तुम्हे दिखाई नहीं पड़ता है, हमको अपवित्र कर दिया।" फिर जब वो शंकराचार्य के पास आए तो उन्होंने कहा, "तुम तो अभी लोगों को खाने दौड़ते हो - तुम ब्रह्मज्ञान के अधिकारी कैसे हो सकते हो? जाओ गोवर्धन परिक्रमा करो, भजन करो और श्री कृष्ण की भक्ति करो - एक साल। जब अन्तःकरण शुद्ध हो जाए तो मेरे पास आना।" एक साल साधना करके जब वो वापस आया तो शंकराचार्य ने उस भंगिन से कहा कि अब उसने एक साल साधना कर ली है केवल उसके ऊपर धूल उड़ाने से काम नहीं चलेगा, झाड़ू चलाते चलाते उसके पैर में छुआ देना और बोल देना की गलती से छू गया।" उसने वैसे ही किया तो पंडित जी ने दांत को पीसकर उसकी और गुस्से से देखे और आगे चले शंकराचार्य के पास। तो शंकराचार्य ने कहा अभी तुम्हारा अंतःकरण शुद्ध नहीं हुआ, तुम तो अभी भी गुर्राते हो। अभी तुमको विद्वान, ब्राह्मण आदि होने का देहाभिमान है। जाओ और साधना करो।"
फिर वो रोते गाते रहे, राधा कृष्ण से प्रार्थना करते रहे कि "ऐसी कृपा करो कि गुरुजी हमको अपनाने लें।" फिर उसका अंतःकरण शुद्ध हुआ। उसने डटकर साधना की। तुम्हारी तरह नहीं - जैसा मन में आया साधना किया, मन में आया संसार या सत्संगियों का अंडबंड चिंतन किया, मन में आया तो किसी में दोष देख रहे हैं, मन में आया सो गए - ऐसे नहीं। उसने चौबीस घंटे साधना की - तैलधारावदविच्छिन्न, यथा गङ्गांभसोऽम्बुधौ (जैसे गंगा जी का जल निरंतर समुद्र में गिरता है)।
फिर इस बार शंकराचार्य ने उस भंगिन से कहा कि "इस बार केवल झाड़ू छुआने से गुस्सा नहीं करेगा- उस कचड़े को टोकरे को उसके सिर के ऊपर डाल देना।" भंगिन ने ऐसा किया तो वो उसके चरणों में पड़ गए और कहा कि "माँ ! तुमने ही हमको गुरुजी के पास तक पहुँचाया!"
तो अभी सही नहीं हुए हो, ये सोचना भी मत कभी भूलकर भी। जब तक देहाभिमान है, अहंकार है, दूसरे की अपमान और गाली को सहर्ष सहन करने की शक्ति न हो जाये, तब तक सही नहीं हो। चाहे वो सोचा करे वो सही है - जब तक कोई सोचता है कि मैं सही हो गया हूँ, तब तक वो सही नहीं होता। जितना आगे बढ़ोगे उतने सोचोगे कि मैं कभी सही नहीं हो सकता - यही सही की पहचान है। अभी तो तुम्हें शब्द की फीलिंग होती है - इतना स्तर नीचे है, कि गुरु को भी तुरंत जवाब देते हो। अब तो बहुत गड़बड़ है। गड़बड़ी ठीक करने का अभी तुमने कभी प्रयत्न ही नहीं किया जैसे बच्चे परीक्षा के चार दिन पहले चाय पीकर पढ़ने में दिन-रात एक कर देते हैं। इस प्रकार की साधना तुमने एक महीने भी नहीं की। दूसरे के प्रति दुर्भावना करने की भयंकर बीमारी है, कि ये खराब है वो खराब है, ये ऐसा है वो वैसा है। इससे अहंकार बढ़ता है। उसको मिटाते नहीं हो।
कितने साधक हमारे देश में वास्तविक महापुरुष के शरणागत न होकर स्वयं से साधना करते हैं-
थोड़ी उन्नति होने पर, एक आनंद के (श्यामसुंदर की) आभास की लहर आने पर ही अहंकार उसको दबोच लेता है और वो बड़े कॉन्फिडेंस के साथ लोगों को कहता है कि हमको भगवत्प्राप्ति हो गई। अपना ही बनाया हुआ ध्यान किसी समय इतना अधिक सुन्दर बन गया कि उसको ऐसी फीलिंग हुई कि श्यामसुंदर प्रत्यक्ष दिखे। लेकिन वो वास्तव में दर्शनाभास है। भाव भक्ति में ये सब होता रहता है। अगर सही गुरु नहीं है तो वो कह देगा कि हाँ भगवत्प्राप्ति हो गई। लेकिन सही गुरु ये कहेंगे कि धोखे में न पड़ो, आगे बढ़ते जाओ, अभी मंज़िल दूर है। कदम-कदम पर गुरु की ज़रूरत है।
तुम लोग अजगर की चाल से चल रहे हो जो सबसे धीमा चलता है। अभी तुम लोगों ने सोचा ही नहीं कल हम मर सकते हैं। वरना रात भर न सोते, डट जाते एक दम। जिस स्पीड से कोई चलेगा उसी हिसाब से तो मंज़िल तक का रास्ता तय होगा। बस इसी बात का संतोष है हम को भी कि रास्ता सही पकड़े हो। अगर इसी रास्ते में चलते जाओगे तो एक दिन पहुँचोगे। बाकी जिस तरह चलना चाहिए उस तरह कोई भी नहीं चल रहा है। कीर्तन में भी गड़बड़ कर रहे हो और कीर्तन के बाद भी दिनभर बेकार की बातें करते हो। इस दो पैसे की खोपड़ी से जो शब्द निकलेंगे, वो तुम्हारा अनर्थ ही तो करेंगे। और ऐसा नहीं कि केवल युवक ही ऐसे करते हैं - जिनको ये पता है कि हम किसी भी दिन मर सकते हैं ऐसे बुज़ुर्ग लोग भी अनावश्यक बात करते हैं। अगर कीर्तन नहीं चल रहा है तो उस समय उससे बड़ी साधना तुम करो - एक जगह बैठकर भगवान् के लिए आँसू बहाओ। ऐसा तो नहीं हैं कि जब कीर्तन हो तभी साधना है।
साधक का प्रश्न - श्यामसुंदर का आभास भी तो गुरुकृपा से ही तो होता है?
ये सब तो ठीक है कि भगवत्कृपा और गुरु कृपा से ही भगवान् का एक नाम भी निकलता है। लेकिन उस कृपा को रियलाइज़ करके सदुपयोग करना ये तुम्हारा काम है। इससे साधना बढ़ती है। भगवत्कृपा और गुरु-कृपा को सदा मानना ही है, वो तो सिद्धांत ही है वरना अनंत जन्मों का बिगड़ा हुआ ये मन भगवान् का नाम ले, ये कैसे पॉसिबल होता। लेकिन कृपा का मतलब ये नहीं की भगवान् या गुरु तुमको डाइरेक्ट भगवत्प्राप्ति करा देंगे - साधना करके आगे बढ़ना तुम्हारा काम है। उनकी पहली कृपा ये है कि हमको मानव देह मिला। फिर हमारा जन्म उस घर में हुआ जहाँ लोग नास्तिक नहीं थे। फिर हमको किसी व्यक्ति का संग मिला जिसने भगवान् के विषय में तुम्हे बताया और कुछ किताबें पढ़ने को दी। फिर ये संजोग लगते लगते हम सही जगह पहुँच गए। वहाँ तत्त्वज्ञान भी हो गया। फिर हमने साधना शुरू की। ये सर्वत्र भगवत्कृपा और गुरुकृपा है। ये मन जिससे योगी लोग हार गए, उस मन को श्री महाराज जी ने यहाँ तक पहुँचा दिया कि अगर हम कहीं बस में जा रहे हों और किसी ने अंगड़ाई लेते हुए "राधे" बोला - तो हम चौंक जाते हैं कि इसने 'राधे' बोला - उससे तुम्हारी कितना ममता हो गई की उससे बात किए बिना बेचैन हो जाते हो। ये सब तुम्हारे अंदर की फीलिंग है - ये बहुत बड़ी बात है। ये माइलस्टोन है।
सबसे बड़ा दोष दूसरे में दोष देखना और दूसरे को अपने से छोटा मानना है - ये दोष इतना भयंकर है कि सब अच्छाई बरबाद कर देता है। भगवान् और गुरु के प्रति सोचना तो सबसे बड़ा अपराध है ही - वो नामापराध है, लेकिन साधक-साधक के प्रति दोष चिंतन करना भी खतरनाक है। जिस मन से हरि-गुरु का चिंतन करना है उसी मन से दोष का चिंतन करना तो कपड़े में बार-बार साबुन लगाकर गन्दगी में डुबाने जैसा है। मन को ऐसे स्वच्छंद छोड़कर 'मैं सब समझता हूँ' - ये अहंकार पैदा कर लेना, ये सब भयंकर दुश्मन हैं। ये सब तैयार रहते हैं कि इसको नीचे गिरावें और तुम लापरवाह रहते हो।
वरना - क्षणशः क्षणशोऽविद्या। कणशः कणशोऽधनं - एक एक पैसे के लिए जैसे लोभी लखपति प्रयत्न करता है, उसी प्रकार एक एक क्षण का भगवदीय उपयोग हो, कम से कम तब जब संसार के काम से रहित हो। निरर्थक बातें नहीं करो। हरि गुरु को सदा सर्वत्र जो अपने साथ न मानेगा वो पूरी तरह से नास्तिक है - अस्तीत्येवोपलब्धस्य तत्त्वभावः प्रसीदति - सदा भगवान् देख रहा है, सुन रहा है, सोच रहा है, समझ रहा है, हमारे साथ है, ये फीलिंग गई कि वो नास्तिक हो गया।
http://jkp.org.in/live-radio
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
Prashnottari (Vol. 1-3) - Hindi
Read Next
Daily Devotion - June 26, 2025 (Hindi)- अपने में झाँको
परदोष और निज गुण - दूसरे में दोष और अपने में गुण - इन दो चीज़ों का चिंतन न करो। दूसरे में दोष देखने से 2 हानि होगी - 1. वह दोष मन में आएगा और,
Daily Devotion - June 24, 2025 (English)- Gateway to Hell
God told Arjun - trividhaṃ narakasyedaṃ dvāraṃ nāśanamātmanaḥ। kāmaḥ krodhastathā lobhastasmādetattrayaṃ tyajet। There are three most important gateways to hell - they cause one's total ruin. They are desire, anger, and greed. These are three mighty enemies. Therefore, you must let go of them. Arjun said, "O
Daily Devotion - June 22, 2025 (Hindi)- तत्व ज्ञान परमावश्यक है
भावुक लोगों की बुद्धि में मिथ्या-अहंकार है कि हम सब समझते हैं। हमें लेक्चर में इंटरेस्ट नहीं है। हम तो साधना में लगे हैं। साधना में लगना ठीक है - लेकि
Daily Devotion - June 16, 2025 (English)- Who Controls Destiny?
Question by a sadhak - Can prārabdh (destiny) be altered? Shri Maharaj Ji's answer - Saints and God are capable of doing anything (kartumakartumanyathākartuṃ samartha) - they can act as they wish, refrain from acting, or act contrary to expectation - Rāma bhagata kā kari na sakāhiṃ However,