'शुभ अक्षय-तृतीया' - आप सभी सुधी पाठक-जनों को हार्दिक शुभकामनायें!
आज 'अक्षय-तृतीया' का पर्व है, इस पर्व पर दान-पुण्य तथा साधना आदि का अनंत गुना फल मिलता है। साथ ही श्रीगुरुचरणों तथा भगवान् श्रीराधाकृष्ण के चरणों के पूजन-अर्चन का भी विशेष महत्व है। पर्व की इसी महत्त्वता पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जा रहा है।
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा 'अक्षय-तृतीया' महात्म्य पर सन्देश
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने प्रत्येक त्यौहार तथा पर्व का एक ही उद्देश्य बतलाया है - 'संसार से मन को हटाकर भगवान् और गुरु में लगाना'। ऋषि-मुनियों द्वारा निर्धारित परंपराओं, पर्वादिकों का यही महत्त्व है कि गृहस्थ में रहते हुये मनुष्य इन पर्वों के द्वारा अपने मन को संसार से निकालकर भगवान् की ओर ले जाने का प्रयास करे। 'अक्षय-तृतीया' के स्वरूप तथा महत्व पर अपने उदबोधन में उन्होंने वर्णन किया है,
"....ये श्रीकृष्ण सम्बन्धी त्यौहार है, और जितने भी त्यौहार श्रीकृष्ण सम्बन्धी होते हैं सबका अभिप्राय केवल यही है कि हम तन, मन, धन से श्रीकृष्ण को अर्पित हों और अपना कल्याण करें। 'अक्षय' शब्द का अर्थ तो आप लोग जानते ही हैं, अनंत होता है, अर्थात जो कुछ दान किया जाता है, उसका अनंत गुना फल होता है. विशेष फल होता है, भावार्थ ये। और प्रमुख रूप से स्वर्णदान का महत्व है। लेकिन लोग उसका उल्टा कर लिये हैं। स्वर्ण खरीदने का, स्वर्ण दान के बजाय लोगों ने उसका बिगाड़ करके उसको बना लिया अपने लिये, कि सोना खरीदना चाहिये।
तो सोने का दान समर्थ लोगों के लिये है और असमर्थ लोग भी दान अवश्य करें, अपनी हैसियत के अनुसार। ऐसा प्रमुख रूप से है और तन से सेवा, मन से सेवा तो करना ही है, वो तो सदा करना ही है गरीब को भी, अमीर को भी। और तन मन धन ये तीन ही तो हैं जिनसे हम उपासना करते हैं, भगवान् की भक्ति करते हैं, सेवा करते हैं। तो केवल सेवा का लक्ष्य है हर त्यौहार का, उसी में एक अक्षय तृतीया भी है...."
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने 'दान' का महत्व इस दोहे में इंगित करते हुये कहा है;
हरि को जो दान करु गोविन्द राधे।
हरि दे अनन्त गुना फल बता दे।।
(राधा गोविन्द गीत, दोहा संख्या 2259)
शास्त्रों ने भी कलियुग में दान की प्रधान्यता प्रतिपादित की गई है। यथा - 'दानमेकं कलौयुगे'।
हरि-गुरु चरणों का भी होता है पूजन और चरण-दर्शन
'अक्षय-तृतीया' के पावन अवसर पर कई धामों में भगवान् के चरण-दर्शन भक्तजनों को कराये जाते हैं। इसके अलावा हरि-गुरु चरणों के श्रीचरणों का भी पूजन इस पर्व पर किया जाता है, जिसका विशेष फल प्राप्त होता है। श्री गुरुदेव तथा भगवान् एक ही तत्व हैं। श्रीगुरुचरणों की सेवा से, उन चरणों की स्मृति से अन्तःकरण के अज्ञान-अंधकार का नाश होता है, तथा भगवान् के प्रति हृदय में प्रेम की उत्पत्ति होती है। श्रीराधाकृष्ण के चरणारविन्दों की शरण, माया के भयंकर प्रभाव में भी जीव को निर्भय बनाने वाली, पतितजनों को पावन बना देने वाली तथा जीवों के दुःख-संतप्त हृदय में प्रेम, कृपा, करुणा तथा अनंतानंत आनन्द प्रदान करने वाली है।
पुनः आप सभी पाठक-समुदाय को 'अक्षय-तृतीया' के महान पर्व की बहुत बहुत शुभकामनायें!!
संबंधित पुस्तकें
राधा गोविन्द गीत
‘द,द,द’
'दानमेकं कलौयुगे
Why Charity?
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आज 'अक्षय-तृतीया' का पर्व है, इस पर्व पर दान-पुण्य तथा साधना आदि का अनंत गुना फल मिलता है। साथ ही श्रीगुरुचरणों तथा भगवान् श्रीराधाकृष्ण के चरणों के पूजन-अर्चन का भी विशेष महत्व है। पर्व की इसी महत्त्वता पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जा रहा है।
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा 'अक्षय-तृतीया' महात्म्य पर सन्देश
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने प्रत्येक त्यौहार तथा पर्व का एक ही उद्देश्य बतलाया है - 'संसार से मन को हटाकर भगवान् और गुरु में लगाना'। ऋषि-मुनियों द्वारा निर्धारित परंपराओं, पर्वादिकों का यही महत्त्व है कि गृहस्थ में रहते हुये मनुष्य इन पर्वों के द्वारा अपने मन को संसार से निकालकर भगवान् की ओर ले जाने का प्रयास करे। 'अक्षय-तृतीया' के स्वरूप तथा महत्व पर अपने उदबोधन में उन्होंने वर्णन किया है,
"....ये श्रीकृष्ण सम्बन्धी त्यौहार है, और जितने भी त्यौहार श्रीकृष्ण सम्बन्धी होते हैं सबका अभिप्राय केवल यही है कि हम तन, मन, धन से श्रीकृष्ण को अर्पित हों और अपना कल्याण करें। 'अक्षय' शब्द का अर्थ तो आप लोग जानते ही हैं, अनंत होता है, अर्थात जो कुछ दान किया जाता है, उसका अनंत गुना फल होता है. विशेष फल होता है, भावार्थ ये। और प्रमुख रूप से स्वर्णदान का महत्व है। लेकिन लोग उसका उल्टा कर लिये हैं। स्वर्ण खरीदने का, स्वर्ण दान के बजाय लोगों ने उसका बिगाड़ करके उसको बना लिया अपने लिये, कि सोना खरीदना चाहिये।
तो सोने का दान समर्थ लोगों के लिये है और असमर्थ लोग भी दान अवश्य करें, अपनी हैसियत के अनुसार। ऐसा प्रमुख रूप से है और तन से सेवा, मन से सेवा तो करना ही है, वो तो सदा करना ही है गरीब को भी, अमीर को भी। और तन मन धन ये तीन ही तो हैं जिनसे हम उपासना करते हैं, भगवान् की भक्ति करते हैं, सेवा करते हैं। तो केवल सेवा का लक्ष्य है हर त्यौहार का, उसी में एक अक्षय तृतीया भी है...."
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हरि दे अनन्त गुना फल बता दे।।
(राधा गोविन्द गीत, दोहा संख्या 2259)
शास्त्रों ने भी कलियुग में दान की प्रधान्यता प्रतिपादित की गई है। यथा - 'दानमेकं कलौयुगे'।
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