उपासना, भक्ति या साधना - इन सब शब्दों का अर्थ है, मन को भगवान् में लगाना - मन को। बंधन और मोक्ष का कारण मन है। मन ही उपासक है। चाहे अच्छा कर्म हो, बुरा कर्म हो, या भगवान् संबंधी कर्म हो, सब कर्मों का कर्ता मन ही है।
इसलिए रूपध्यान सर्वप्रथम आवश्यक है। उसके बाद चाहे कीर्तन करो, जप करो, पाठ करो, पूजा करो, या कुछ न करो - केवल रूप ध्यान करो - भगवत्प्राप्ति हो जाएगी।
मन का अटैचमेंट कैसे होना चाहिए?
ऐसे-वैसे नहीं।
कामिहि नारि पिआरि जिमि, लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तद्विस्मरणे परम व्याकुलता (नारद भक्ति सूत्र)
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत्सर्वं गोविन्द विरहेण मे॥ (महाप्रभु जी)
हमारे देश में बड़ी साधनाएँ दिखाई पड़ती हैं। चाहे वो गृहस्थी हो, चाहे बाबा हो, चाहे सन्यासी हो। कोई पुस्तक पढ़ रहा है, कोई जप कर रहा है, कोई पाठ कर रहा है, कोई पूजा कर रहा है। लेकिन उनसे पूछो, भगवान् के लिए आँसू कितने निकले? उनके मिलने का वो विरह, वो वेदना कितने परसेंट हुई? एक क्षण युग के समान लगे उनसे मिले बिना। नहीं हुई।
बड़े-बड़े व्याख्याता हमारे देश में हुए, हैं। वेदांत के हैं, न्याय के हैं, सांख्य के हैं, बड़े-बड़े शास्त्रज्ञ बड़े-बड़े लेक्चर देते हैं। लेकिन उनके मन का अटैचमेंट भगवान् में नहीं है। मंदिरों में वेदों और रामायण से कैसी-कैसी स्तुति होती हैं। लेकिन इस तरह आँसू नहीं निकलेंगे। दीनता नहीं आएगी।
इसलिए मन से रूपध्यान करो। भगवान् इतना अकारण करुण है, कि उन्होंने कहा, "तुम्हारे मन में जो रूप आए, वो रूप बना लो।"
मन से रूप बनाने में बहुत फायदे हैं।
- मनमाना रूप बनाओ। हो सकता है किसी शिल्पी के गढ़े हुए मूर्ति तुम्हारे मन के अनुसार नहीं है - उसका मुँह, नाक, आँख, सब तुम्हें पसंद नहीं आती। लेकिन मन से बनाई हुई मूर्ति, तुम्हें जैसा सुंदर लगे वैसा बना लो।
- मंदिर की मूर्ति एक रूप में रहेगी। लेकिन तुम कभी बाल कृष्ण बना लो - कभी घुटने के बल चल रहे हैं, तो कभी और बड़ा बना लो, और कभी और उससे बड़े उम्र का बना लो।
- वस्त्र बदल बदल कर पहनाओ। मंदिर की मूर्ति को देखकर आदमी कभी इच्छा करता है कि "अगर मेरे पास पैसे होते तो इस मूर्ति को मैं हीरे की माला पहनाता, लेकिन दरिद्र हूँ।" लेकिन मन से कोहिनूर हीरे से भी महँगा माला पहनाओ। मन से गोलोक से दिव्य हीरा मँगवाओ और अपने श्यामसुंदर को पहनाओ, और विभोर हो जाओ।
- मनुष्य का मन तो गंदा है। मन से बनाया हुआ रूप तो मायिक ही होगा, जितना भी सुन्दर बनाओ। संसार में जो उसने देखा है मन उसी के आधार पर रूप बनाएगा - वो दिव्य रूप कैसे बनाएगा? लेकिन भगवान् की रियायत यह है कि वे उस रूप को मान लेते हैं कि ये मेरा ही शरीर है और उसी प्रकार का फल देते हैं।
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
Rupdhyan Vijnana (Hindi)
उपासना, भक्ति या साधना - इन सब शब्दों का अर्थ है, मन को भगवान् में लगाना - मन को। बंधन और मोक्ष का कारण मन है। मन ही उपासक है। चाहे अच्छा कर्म हो, बुरा कर्म हो, या भगवान् संबंधी कर्म हो, सब कर्मों का कर्ता मन ही है।
इसलिए रूपध्यान सर्वप्रथम आवश्यक है। उसके बाद चाहे कीर्तन करो, जप करो, पाठ करो, पूजा करो, या कुछ न करो - केवल रूप ध्यान करो - भगवत्प्राप्ति हो जाएगी।
मन का अटैचमेंट कैसे होना चाहिए?
ऐसे-वैसे नहीं।
कामिहि नारि पिआरि जिमि, लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तद्विस्मरणे परम व्याकुलता (नारद भक्ति सूत्र)
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत्सर्वं गोविन्द विरहेण मे॥ (महाप्रभु जी)
हमारे देश में बड़ी साधनाएँ दिखाई पड़ती हैं। चाहे वो गृहस्थी हो, चाहे बाबा हो, चाहे सन्यासी हो। कोई पुस्तक पढ़ रहा है, कोई जप कर रहा है, कोई पाठ कर रहा है, कोई पूजा कर रहा है। लेकिन उनसे पूछो, भगवान् के लिए आँसू कितने निकले? उनके मिलने का वो विरह, वो वेदना कितने परसेंट हुई? एक क्षण युग के समान लगे उनसे मिले बिना। नहीं हुई।
बड़े-बड़े व्याख्याता हमारे देश में हुए, हैं। वेदांत के हैं, न्याय के हैं, सांख्य के हैं, बड़े-बड़े शास्त्रज्ञ बड़े-बड़े लेक्चर देते हैं। लेकिन उनके मन का अटैचमेंट भगवान् में नहीं है। मंदिरों में वेदों और रामायण से कैसी-कैसी स्तुति होती हैं। लेकिन इस तरह आँसू नहीं निकलेंगे। दीनता नहीं आएगी।
इसलिए मन से रूपध्यान करो। भगवान् इतना अकारण करुण है, कि उन्होंने कहा, "तुम्हारे मन में जो रूप आए, वो रूप बना लो।"
मन से रूप बनाने में बहुत फायदे हैं।
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