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Daily Devotion - Nov 29, 2025 (Hindi)- आस्तिकता का भ्रम
By Kripalu Bhaktiyoga Tattvadarshan profile image Kripalu Bhaktiyoga Tattvadarshan

Daily Devotion - Nov 29, 2025 (Hindi)- आस्तिकता का भ्रम

एक साधक का प्रश्न है - दो पार्टी हैं संसार में - एक धार्मिक है और एक नास्तिक है। हमारे देश में सबसे अधिक आस्तिकता है। केवल हमारे देश

एक साधक का प्रश्न है - दो पार्टी हैं संसार में - एक धार्मिक है और एक नास्तिक है।
हमारे देश में सबसे अधिक आस्तिकता है। केवल हमारे देश में साल भर में इतने सारे त्योहार हैं, इतने सारे मंदिर हैं और इतने सारे भगवान के अवतार हुए हैं, और बड़े-बड़े महापुरुष हुए हैं। वर्तमान काल में भी जगह-जगह कीर्तन-भजन हो रहा है। फिर भी करप्शन इतना अधिक है ! बेईमानी, 420, अनाचार-दुराचार-पापाचार-भ्रष्टाचार की भरमार है। ऐसा क्यों? धर्म से तो इन सबका अभाव होना चाहिए। जिन देशों में कोई धर्म नहीं है, वहाँ भी इतना अधिक अनाचार नहीं है, जितना भारत में है।

श्री महाराज जी का उत्तर -
धर्म का स्वरूप विकृत हो गया है। धर्म दो प्रकार का होता है -

  1. मन से और
  2. इन्द्रियों से।
    हमारे यहाँ जो धर्म हो रहा है, वो इन्द्रियों से हो रहा है। मन से नहीं हो रहा है। हम लोगों की साधना गलत है, इसलिए मन शुद्ध नहीं होता। मन से ही अच्छे-बुरे आइडियाज़ पैदा होते हैं। और धर्म हो रहा है तन से। रमेश खाना खाए तो दिनेश का पेट तो नहीं भरेगा। जब आप तन से कोई काम करेंगे तो तन को लाभ मिलेगा और मन से कोई काम करेंगे तो मन को लाभ मिलेगा।

जब लोग मंदिरों या तीर्थों में जाते हैं, तो इन्द्रियों से भक्ति करते हैं। गंगा जी के जल में डुबकी लगाने से तन का मैल धुलेगा, मन का तो नहीं धुलेगा। लोग गंगा नाम की पर्सनैलिटी तक को नहीं जानते। लोग पानी में घुसने पर गंगा जी का स्मरण तक नहीं करते। तो मन का मैल कैसे धुलेगा - तन का धुलेगा। तन के ऊपर पानी गया है, मन के ऊपर नहीं गईं गंगा जी।

एक बार सब ऋषि मुनि नहा रहे थे, वहाँ नारद जी भी थे, उन्होंने गंगाजी में नहीं नहाया। तो गंगा जी प्रकट हो गईं और पूछीं - "नारद तुम क्यों नहीं नहा रहे?"
नारद जी ने कहा -
अम्ब! त्वद्दर्शनात् मुक्ति: न जाने स्नानजं फलं।
माँ! तुम्हारे स्मरण और दर्शन मात्र से मोक्ष मिल जाता है। तो नहाने से और क्या विशेषता हो जाएगी?

यानी मन का सम्बन्ध होना चाहिए, तब मन से अच्छे आइडियाज़ पैदा होंगे, वो चाहे भगवान् की भक्ति हो, चाहे गंगा जी की हो या किसी धर्म से सम्बंधित किसी भी देवता की हो।

सब अपने धर्म के अनुसार पुस्तकों का पाठ करते हैं जैसे गीता, रामायण, भागवत या वेद - इससे क्या होगा? पाठ करना तो रसना का - यानी इन्द्रिय का सब्जेक्ट है। मन का अटैचमेंट कहाँ हैं? मन को ही तो शुद्ध करना है, तभी तो अच्छे आइडियाज़ पैदा होंगे। जो खास मूर्ति की पूजा करने वाले पुजारी, जो डायरेक्ट मूर्ति में चन्दन लगाते हैं, उनका मन भी संसार में रहता है कि किसने क्या भेंट चढ़ाया। भोले भाले लोगों को ये पंडे-पुजारी लोग तीर्थों में कितना तंग करते हैं। बहुत से मंदिरों में तो अंदर घुसने के लिए भी फीस होती है।

तो हमारी उपासना ही गलत है। वर्तमान काल में हमें गाइड करने वाले आचार्य सब गलत उपदेश देते हैं - जप करने के लिए कहते हैं, पैसा देकर सारी रात जागरण हो रहा है, अखंड कीर्तन होता है, पाँच सौ रुपये में बेटे को मृत्यु से बचाने के लिए पंडित जी से मृत्युंजय मंत्र का जाप करवाते हैं - यानी सब इन्द्रियों वाला कर्म करने को कहते हैं। मृत्यु पर आज तक किसी ने विजय प्राप्त नहीं की है। बड़े-बड़े भगवत्प्राप्त महापुरुष परमहंस को भी जाना पड़ता है। स्वयं भगवान् भी आते जाते हैं - अंतर ये है कि वे शरीर के साथ आते हैं और शरीर के साथ जाते हैं, और हम शरीर बनाकर आते हैं और शरीर छोड़कर जाते हैं।

हम लोगों ने तमाम साधनों से - लोगों, किताबों, पिक्चरों, टीवी आदि से मन में छल कपट का अम्बार भर लिया और हमारा नाम हो गया एक्स्पर्ट। छल कपट का भण्डार माने काबिल आदमी। तो इस कूड़ा-कचड़ा को निकालने के लिए, जहाँ वो गड़बड़ी है वहाँ की सफाई होनी चाहिए। तो वो गड़बड़ी मन में है, इन्द्रियों में नहीं, तन में नहीं। हम लोग मन से भक्ति नहीं करते। धर्म माने मन से भगवान् को धारण करना है - वो स्पिरिचुअल पॉवर हैं। हमारा उद्देश्य संसारी सुख है - ये ब्लंडर मिस्टेक हमने किया। हमारा ये निश्चय है कि संसार में सुख है, एक दिन मिलेगा। एक करोड़ में नहीं मिला तो दो या चार करोड़ में मिलेगा, लेकिन मिलेगा। जब ये लक्ष्य गलत हो गया तो उसको पाने के लिए हम सब चार-सौ-बीस करेंगे, करना पड़ेगा। इसलिए करप्शन है। अगर ये बुद्धि में बैठ जाता कि "हम आत्मा हैं, शरीर नहीं है। हमारा सुख तो परमात्मा में है। संसार में नहीं है। संसार तो हमारे शरीर को चलाने के लिए भगवान् ने बनाया है। संसार पँच महाभूत का है, हमारा शरीर भी पँच महाभूत से बना है। इसलिए हमें संसार से सुख मिलने का सवाल ही नहीं है। शरीर के लिए संसार है और आत्मा के लिए भगवान् हैं।" अगर हम उल्टा करें - आँख बंद करके कान से देखने की चेष्टा करने का प्रयास करें - तो वो इम्पॉसिबल है। हम संसार का सामान देकर आत्मा को सुख देना चाहते हैं। अनंत जन्मों में आप अनंत बार स्वर्ग गए, लेकिन वहाँ भी सुख नहीं मिला - लौट आए वहाँ से।

आत्मा का सुख परमात्मा में है- इतनी सी बात हमारी समझ में नहीं आई, अनंत जन्म बीत गए। और अनंत ज्ञान इकट्ठा कर लिया लेकिन इतना सा ज्ञान नहीं इकट्ठा किया कि हम कौन हैं? हमने अपने को देह मान लिया तो देह के माँ-बाप-बेटा-पति को अपना मान लिया और इन्द्रियों के सामान से सुख मिलेगा, ये मान लिया। और हो गई गड़बड़। भगवान् सब जगह समान रूप से व्याप्त हैं - ये बात बाइबिल, कुरान, वेद सब कहते है। लेकिन मंदिर में कोई बदतमीज़ी करे तो पंडितजी उसे डांटते हैं कि "यहाँ ये सब मत करो, ये मंदिर है - यहाँ भगवान् रहते हैं!" अगर उससे पूछो कि "क्या बाहर बदतमीज़ी कर सकते हैं", तो वो कहता है "हाँ बाहर कर सकते हैं।" भगवान् तो तुम्हारे अंदर भी रहते हैं, बाहर भी रहते हैं। लेकिन भूल गए।
जितने पाप हम करते हैं, ये इसलिए करते हैं क्योंकि हम उस समय ये भूल जाते हैं कि वो अंदर बैठे-बैठे नोट करते हैं, मरने के बाद दंड देंगे। लोग ये बोलते हैं देखा जायेगा मरने के बाद जो होगा - देखा नहीं जायेगा, भोगा जायेगा।

एक फकीर ने फ़ारसी में कहा है -
नमाज़े-ज़ाहिदाँ कद्द-ओ-सजूद अस्त।
समझदारों/बुद्धिमानों (ज़ाहिदाँ) की उपासना (नमाज़) उठक-बैठक (कद्द-ओ-सजूद) है। मुँह से बोल रहे हो - खुदा! हमारे गुनाह माफ़ कीजिये। अब मैं गुनाह नहीं करूँगा। लेकिन जो बोल रहे हो, उसको मान कहाँ रहे हो। फिर से गुनाह करते हो।
नमाजे-आशिकाँ तर्के-वज़ूद अस्त।
जो खुदा से प्रेम करते हैं (नमाजे-आशिकाँ), उनकी नमाज़ क्या है? अहंकार को समाप्त करके खुदा को अंदर लाना (तर्के-वज़ूद) है - ये असली नमाज़ है। पर कौन मानता है?

भगवान् की भक्ति मन को करनी है - ये गीता, भागवत सब जगह एक-एक श्लोक में भरा पड़ा है।
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर - निरंतर मन मुझमें रख और युद्ध कर।
सर्वेषु कालेषु का क्या कहें, एक घंटे भी हम मन को भगवान् में नहीं रखते, संसार में ही लगाए हुए हैं। तो मन कैसे शुद्ध होगा?

इसलिए हमारी साधना में गड़बड़ है। हम ज़ीरो में गुणा कर रहे हैं। हम अपने को शरीर मानकर इस भ्रम में संसार से सुख चाह रहे हैं। उसके लिए अनेक प्रकार की फितरत करते हैं। इसलिए चाहे भारत हो, चाहे इंग्लैण्ड हो, या चाहे अमरीका हो, गड़बड़ी है और तब तक रहेगी जब तक हमारे मन में भगवान् न आवें और मन शुद्ध न हो। ये उत्तर है।

इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:

Bhagavad Gita Jnana (Set of 6) - Hindi

Shraddha - Hindi

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