सम्पूर्ण विश्व के समक्ष एक प्रश्न है - आज सम्पूर्ण संसार में आध्यात्मिकता तो बहुत दिखाई पड़ती है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा गिरिजाघर - अपने-अपने धर्म के अनुसार बहुत सारे हैं और सभी जगह लाखों की भीड़ है। कुंभ मेले में करोड़ों की भीड़ लगती है। इतना सब धर्म दिख रहा है और करप्शन भी बढ़ता जा रहा है ?
यह क्यों?
इसका तात्पर्य यह तो नहीं कि आध्यात्म या भगवान्-संबंधी बातें कोरी कल्पना हैं?
श्री महाराज जी का उत्तर : भक्ति दो प्रकार की होती है -
- एक भक्ति होती है इन्द्रियों से
- एक भक्ति होती है मन से
प्रश्न ये है कि हमारे आइडियाज़ या विचार कहाँ से पैदा होते हैं?
उस मशीन का नाम है मन - अंतःकरण। वो सूक्ष्म है - कोई हमारे अंदर है। अच्छे-बुरे सदाचार-दुराचार सारे कर्म उसी से गवर्न होते हैं।
इन्द्रियों की भक्ति से इन्द्रियाँ शुद्ध होती हैं। मन की भक्ति से मन शुद्ध होगा। बड़ी सीधी सी बात है।
सारे कर्म तो मन से होते हैं। इन्द्रियां स्वयं कर्म नहीं कर सकतीं - वो तो बेचारी निमित्त मात्र हैं।
सपना देखते समय मन बाहर चला जाता है। इन्द्रियां खाट पर रहती हैं - वो कोई काम नहीं करती। सब काम मन करता है।
इसलिए वेद-शास्त्र कहते हैं - मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
मन ही मुख्य कर्मकर्ता है - उसी को शुद्ध करना है। वो अनादिकाल से गलत कर्म करता आया है।
गलत कर्म होता क्या है?
गलत कर्म उसे कहते हैं जो हमको कष्ट दे, जिसका परिणाम दुःख हो। सब दुखी हैं - अरबपति खरबपति स्वर्ग के देवता भी - वहाँ भी काम-क्रोध-लोभ-मोह का साम्राज्य है जिस स्वर्ग की हम बड़ी प्रशंसा करते हैं। यह गलत कर्म का परिणाम है, जिसको हम पाप कहते हैं।
तो मन को शुद्ध करना है। लेकिन संसार में मन को शुद्ध करने की क्रिया यानी भक्ति नहीं हो रही है। इन्द्रियों से भक्ति होती हैं -
- पाठ होता है पुस्तकों का
- जप होता है अक्षरों का
- मार्चिंग चारों धाम और तीर्थों की
- कीर्तन होता है रसना की
ये सब बाहरी इन्द्रियाँ हैं।
एक शीशे में गन्दी चीज़ें भरकर पैक कर दीजिए। फिर उसे गंगा जी में डुबो दीजिये। चौबीस घंटे उसको गंगा में रहने दीजिए। उसके बाद अगर उसकी पैकिंग खोलेंगे तो क्या उसका आचमन लेगा? नहीं। क्योंकि उसके ऊपर शीशा था - उसके अंदर जो मल था वो गंगाजी में नहीं मिला।
हम गंगा जी में डुबकी लगाते हैं - शरीर का। लेकिन मन कहाँ रहता है। क्या मन को पता है गंगा कौन हैं? लोगों को बस इतनी नॉलेज है कि ये जो पानी बह रहा है वही गंगा है।
लोग तीर्थो में जाते हैं - क्या वहाँ कोई बड़े भगवान् होते हैं? आपके शहर के गली-गली में मंदिर है मस्जिद है - तीर्थों में क्या ख़ास बात है?
मन को उस सुप्रीम पावर में लगाना है। उस भगवान् को चाहे खुदा कहो या गॉड कहो।
आप लोग पूरे जीवन में कितने बार मंदिरों और तीर्थों में गए और कितने बार आपने भगवान् को पाने के लिए आँसू बहाए?
वो तो हमने कभी नहीं किया। केवल मुँह से 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव' बोलने से मुँह शुद्ध होगा। आपको तो मन को शुद्ध करना है जहाँ से अच्छे-बुरे आइडियाज़ पैदा होते हैं।
सारे संसार के लोग क्या चाहते हैं ?
सबका एक उत्तर होगा - आनंद। इसी के अनेक नाम हैं - हैप्पीनेस, चैन, शांति आदि।
वो कैसे मिलेगा?
बस यहीं गड़बड़ हो गई।
उत्तर मिला - संसार के सामान से। सब सोचते हैं संसार के देखने, सुनने, सूंघने,खाने, स्पर्श करने, के सारे संसार का सामान।
वो सामान कैसे आएगा - रुपए से।
बस यहीं गाडी रुक गई। अब आनंद नहीं चाहिए रुपए चाहिए।
अब रुपया कैसे आएगा ?
बस जैसे भी आए, रुपया पाना है।
अब बताइए भ्रष्टाचार कैसे समाप्त होगा?
अगर किसी अरबपति खरबपति से पूछोगे की आपको आनंद कभी मिला?
अगर वो ईमानदारी से बोलेगा तो कहेगा की आप लोग तो हमसे अधिक सुखी हैं। हम तो बहुत दुखी हैं। क्योंकि -
- हमको अधिक रोग हैं - आप लोगों से ज़्यादा।
- हमको हर समय डर लगा रहता है कि कोई गोली न मार दे।
खाना तो सबको दो रोटी है। खरबपति का पेट बड़ा नहीं होता और वो रोटी के अलावा सोना चाँदी नहीं खाता।
वो भगवान् की सृष्टि को बस सजा सकता है। भगवान् मुस्कुराते हैं कि "इसने मेरे पृथ्वी को तो सजा दिया। लेकिन इसको ले तो नहीं जा सकता। ये तो यहीं रहेगा और इसको बनाने में जो मक्कारी की है, उसका दंड अलग भोगेगा।"
एक तो उसने इतनी मेहनत से कमाया। और उसको बाद में भी दंड मिलेगा। रोज़ नींद की गोली खाकर तो सोता है।
तो पहले ये डिसीज़न हो कि इस संसार में आनंद नहीं है। तब करप्शन बंद होगा।
संसार तो ये शरीर चलाने के लिए भगवान् ने बनाया। आनंद तो भगवान् में हैं।
हम दो हैं -
- एक हम अंदर वाला
- एक हम शरीर
अंदर वाला कौन है ?
जब कोई मर जाता है, उसका शरीर यहीं रह जाता है। सब कहते हैं मेरा शरीर, मेरा मन, मेरी बुद्धि। ये सब मैं नहीं हैं। ये जिसके हैं, वो है अंदर - वो दिखाई नहीं पड़ता। वो मैं कौन है ?
वो मैं भगवान् का अंश है।
और भगवान् क्या हैं ?
आनंदसिंधु।
उसी आनंदसिंधु को हम चाहते हैं। यहाँ ढूंढते हैं, लेकिन नहीं मिल रहा है।
एक लाख, करोड़, एक अरब, माँ, बाप, बीवी। पति, बेटा - तमाम संसार मिलता जा रहा है। बस एक आनंद नहीं मिला। सब सोचते हैं हमारी माँ खराब है, हमारा बाप खराब है, हमारी बीवी खराब है आदि। कोई खराब नहीं है। तुम्हारी बुद्धि खराब है। यहाँ आनंद है ही नहीं, तो मिलेगा कैसे?
भगवान् का अंश है 'मैं'। भगवान् मेरे हैं। ये आनंद का अंश है। भगवान् आनंदसिंधु हैं।
जैसे सब नदियाँ अपने अंशी समुद्र में जाती हैं, दीपक की आग अपने अंशी सूरज की तरफ जाती हैं , एक ढेले की मिट्टी अपने अंशी पृथ्वी के पास जाती है, ऐसे ही -
हमारा यह अंश जीव अपने अंशी भगवान् के पास जाना चाहता है। उनका आनंद चाहता है। और हम इसको दे रहे हैं शरीर का आनंद। इससे तो बीमारी बढ़ेगी, जैसे जलती हुई आग में घी डालने से आग बढ़ती है।
तो अगर मन से भगवान् की भक्ति होती तो मन शुद्ध होता और भगवान् का आनंद मिलता
अगर संसार में मन है तो संसार में जो है वो मिलेगा। संसार तो दुःख, अशांति, अतृप्ति ही देगा।
संसार में सब एक दूसरे से आनंद की आशा करते रहते हैं - सब अपने अपने तिकड़म में लगे हैं कि इससे आनंद मिल जाए। जब किसी के पास आनंद है ही नहीं तो कोई क्या आनंद देगा? सब एक दूसरे को बेवकूफ बनाने में लगे हैं। इसके लिए झूठ, चार-सौ बीस कर करके हम पाप तो कमाते जा रहे हैं लेकिन आनंद नहीं मिल रहा है। क्योंकि यहाँ आनंद है ही नहीं है। यहाँ कि क्या कहें, स्वर्ग का राजा इंद्र भी - ब्राह्मं पदं याचते - वो भी दुखी है क्योंकि वो ब्रह्मा बनना चाहता है।
तो जब ये बुद्धि में पक्का निश्चय हो जाए कि -
इस संसार में आनंद नहीं है। ये शरीर पंचमहाभूत का बना है। इसके लिए पंचमहाभूत का संसार बना है। आत्मा के लिए परमात्मा है। इसलिए इस मन को परमात्मा में लगाओगे तो परमात्मा का आनंद मिलेगा। संसार में लगाओगे तो संसार के पास जो कुछ भी है वो मिलेगा।
तो उपासना या भक्ति जो संसार में होती है वो इन्द्रियों से होती है। मन से नहीं।
भगवान् को सामने खड़ा करके मन से आंसू बहाना होगा।
भगवान् कहाँ हैं? सबके हृदय में हैं। भगवान् इतने दयालु हैं कि अगर वो ये कहेंगे कि मैं मंदिर में रहूंगा तो जिनके पैर नहीं हैं, वो कहेंगे हमको फ्री में भगवत्प्राप्ति कराइए क्योंकि हम मंदिर नहीं जा सकते।
इन आँखों से भगवान् नहीं दिखाई पड़ते। इन कानों से भगवान् के शब्द नहीं सुनाई पड़ते - ये सब तो संसार के लिए है।
भगवान् का काम दिव्य होता है। भगवान् के कानों से उनके शब्द सुनाई पड़ते हैं। भगवान् की आँखों से भगवान् का दर्शन होता है। उनकी बुद्धि से उनका ज्ञान होता है। वो भगवान देते हैं।
लेकिन कब?
जब हमारे 'मन' का कम्पलीट सरेंडर हो जाए। सारे संसार का अटैचमेंट ज़ीरो हो जाए।
अभी तो माँ बाप मेमसाहब पतिदेव आदि पंद्रह बीस लोगों में हमारा अटैचमेंट पक्का बना हुआ है। मरने के बाद अभी की मम्मी बदल जाएगी। कुत्ते-बिल्ली-गधे सब योनियों में हम जा चुके है हर जन्म में अलग-अलग माँ बाप बेटा बीवी - ऐसे अनंत बन चुके। हम अनादिकाल से चल रहे हैं।
तो शरीर से संसार को चलाओ। आत्मा के लिए तो केवल भगवान् हैं।
उनका कोई नाम रख लो, कोई भी रूप बनाओ। वे तैयार हैं। कहीं भी उनका नाम लो। लेकिन मन के साथ करो - उनको सामने खड़ा करो और उनको रोकर पुकारो कि "कृपा दो, अपना दर्शन दो, अपना ज्ञान दो।" संसार न मांगो।
आज ख़ास तौर से भारत में अमुक मंदिर में भीड़ है क्योंकि वहाँ कामना की पूर्ति हो जाती है। पैसा मिलेगा, बेटा नहीं है, बेटा मिल जाएगा।
श्री कृष्ण के समय कौरवों ने निरपराध अभिमन्यु को घेरकर चार सौ बीस से मारा।
उसके साक्षात् मामा - भगवान् श्री कृष्ण।
उसके साक्षात् बाप - अर्जुन जो महापुरुषों में टॉप किए हुए गीताज्ञानी।
उसका ब्याह करने वाले - वेदव्यास - चार लाख श्लोक बनाने वाले भगवान् के अवतार।
लेकिन किसी ने अभिमन्यु को मरने पर बचाया नहीं। सब बैठकर शोक मना रहे हैं। क्या भगवान् या अर्जुन उसको ज़िंदा नहीं सकते थे?
नहीं कर सका कोई।
लेकिन हम लोग पंडित जी को दस हज़ार देते हैं यह सोचकर कि वो एक मंत्र पढ़कर हमारे बच्चे को बचा लेंगे। क्या वो चारों धाम वाला मंदिर हमारे भाग्य की रेखा काट देगी? इम्पॉसिबल।
जब भगवान् नहीं काट सकते - प्रारब्ध के मामले में कोई दखल नहीं देता चाहे वो महापुरुष हो या भगवान् हों। किसी के लिए कोई रियायत नहीं - सब को पाप का दंड भोगना पड़ेगा। न कोई मंदिर न कुछ कर सकता है, न मस्जिद न कोई बाबा जी। सब ठगने की बातें हैं।
इसलिए इन सब धोखों में नहीं पड़ना चाहिए। मन में पक्का ज्ञान बिठा लो कि -
- भगवान् में ही आनंद है।
- उनसे मन से प्यार करना है। जैसे एक घोर कामिनी और घोर कामी पुरुष आपस में संसार में अटैचमेंट करते हैं, ऐसे श्यामसुंदर को देखे बिना रहा न जाए - ऐसा प्यार।
अगर कोई पूछे भगवान् कैसे मिलते हैं?
जब उनसे मिले बिना रहा न जाए, तब मिलते हैं। कोई पाठ पूजा जप तप कुछ नहीं
हमारे देश में 99% महापुरुष बेपढ़े लिखे हुए क्योंकि उनमे तर्क वितर्क कुतर्क नहीं था। धन्ना जाट को एक पत्थर दे दिया और कह दिया इसमें भगवान् यहीं और उसने मान लिया और डट गए। और हम लोग चार अक्षर पढ़ लेने वाले - हर बात पर भगवान् और महापुरुष के क्रियाओं के लिए "ऐसा क्यों-ऐसा क्यों?" में उलझे रह जाते हैं। अपने लिए प्रश्न नहीं करते। तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट है - वो अभी वहाँ नहीं जा सकती। अपने ऊपर पहले लागू करो कि तुम्हारे अनंत जन्म बीत गए हमने अपने प्रभु को क्यों नहीं पाया ?
भगवान् सब के अंदर बैठे हैं और सब जगह रहते हैं - ये सब धर्म कह रहे हैं। कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है। बस इस एक बात को दुनिया में सब मान लें, तो सब करपशन ख़तम, क्योंकि ये डर लगेगा कि मैं पाप की बात सोच रहा हूँ - वो नोट हो जाएगा। मरने के बाद दंड मिलेगा। अगर ये फीलिंग होती हमारे अंदर भगवान् बैठे हैं और मेरे आइडियाज़ को स्वयं नोट करते हैं। वे यह काम किसी संत को नहीं देते। अपने आप नोट करके अपने आप फल देते हैं।
इसलिए मन से भक्ति करने का अभ्यास करें तो मन के द्वारा अच्छे कर्म होंगे। इन्द्रियों की भक्ति से अनंत काल बीत जाए, करप्शन में कोई सुधार नहीं आ सकता।
http://jkp.org.in/live-radio
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
Sadhan Sadhya- Guru Purnima 2025
सम्पूर्ण विश्व के समक्ष एक प्रश्न है - आज सम्पूर्ण संसार में आध्यात्मिकता तो बहुत दिखाई पड़ती है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा गिरिजाघर - अपने-अपने धर्म के अनुसार बहुत सारे हैं और सभी जगह लाखों की भीड़ है। कुंभ मेले में करोड़ों की भीड़ लगती है। इतना सब धर्म दिख रहा है और करप्शन भी बढ़ता जा रहा है ?
यह क्यों?
इसका तात्पर्य यह तो नहीं कि आध्यात्म या भगवान्-संबंधी बातें कोरी कल्पना हैं?
श्री महाराज जी का उत्तर : भक्ति दो प्रकार की होती है -
प्रश्न ये है कि हमारे आइडियाज़ या विचार कहाँ से पैदा होते हैं?
उस मशीन का नाम है मन - अंतःकरण। वो सूक्ष्म है - कोई हमारे अंदर है। अच्छे-बुरे सदाचार-दुराचार सारे कर्म उसी से गवर्न होते हैं।
इन्द्रियों की भक्ति से इन्द्रियाँ शुद्ध होती हैं। मन की भक्ति से मन शुद्ध होगा। बड़ी सीधी सी बात है।
सारे कर्म तो मन से होते हैं। इन्द्रियां स्वयं कर्म नहीं कर सकतीं - वो तो बेचारी निमित्त मात्र हैं।
सपना देखते समय मन बाहर चला जाता है। इन्द्रियां खाट पर रहती हैं - वो कोई काम नहीं करती। सब काम मन करता है।
इसलिए वेद-शास्त्र कहते हैं - मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
मन ही मुख्य कर्मकर्ता है - उसी को शुद्ध करना है। वो अनादिकाल से गलत कर्म करता आया है।
गलत कर्म होता क्या है?
गलत कर्म उसे कहते हैं जो हमको कष्ट दे, जिसका परिणाम दुःख हो। सब दुखी हैं - अरबपति खरबपति स्वर्ग के देवता भी - वहाँ भी काम-क्रोध-लोभ-मोह का साम्राज्य है जिस स्वर्ग की हम बड़ी प्रशंसा करते हैं। यह गलत कर्म का परिणाम है, जिसको हम पाप कहते हैं।
तो मन को शुद्ध करना है। लेकिन संसार में मन को शुद्ध करने की क्रिया यानी भक्ति नहीं हो रही है। इन्द्रियों से भक्ति होती हैं -
ये सब बाहरी इन्द्रियाँ हैं।
एक शीशे में गन्दी चीज़ें भरकर पैक कर दीजिए। फिर उसे गंगा जी में डुबो दीजिये। चौबीस घंटे उसको गंगा में रहने दीजिए। उसके बाद अगर उसकी पैकिंग खोलेंगे तो क्या उसका आचमन लेगा? नहीं। क्योंकि उसके ऊपर शीशा था - उसके अंदर जो मल था वो गंगाजी में नहीं मिला।
हम गंगा जी में डुबकी लगाते हैं - शरीर का। लेकिन मन कहाँ रहता है। क्या मन को पता है गंगा कौन हैं? लोगों को बस इतनी नॉलेज है कि ये जो पानी बह रहा है वही गंगा है।
लोग तीर्थो में जाते हैं - क्या वहाँ कोई बड़े भगवान् होते हैं? आपके शहर के गली-गली में मंदिर है मस्जिद है - तीर्थों में क्या ख़ास बात है?
मन को उस सुप्रीम पावर में लगाना है। उस भगवान् को चाहे खुदा कहो या गॉड कहो।
आप लोग पूरे जीवन में कितने बार मंदिरों और तीर्थों में गए और कितने बार आपने भगवान् को पाने के लिए आँसू बहाए?
वो तो हमने कभी नहीं किया। केवल मुँह से 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव' बोलने से मुँह शुद्ध होगा। आपको तो मन को शुद्ध करना है जहाँ से अच्छे-बुरे आइडियाज़ पैदा होते हैं।
सारे संसार के लोग क्या चाहते हैं ?
सबका एक उत्तर होगा - आनंद। इसी के अनेक नाम हैं - हैप्पीनेस, चैन, शांति आदि।
वो कैसे मिलेगा?
बस यहीं गड़बड़ हो गई।
उत्तर मिला - संसार के सामान से। सब सोचते हैं संसार के देखने, सुनने, सूंघने,खाने, स्पर्श करने, के सारे संसार का सामान।
वो सामान कैसे आएगा - रुपए से।
बस यहीं गाडी रुक गई। अब आनंद नहीं चाहिए रुपए चाहिए।
अब रुपया कैसे आएगा ?
बस जैसे भी आए, रुपया पाना है।
अब बताइए भ्रष्टाचार कैसे समाप्त होगा?
अगर किसी अरबपति खरबपति से पूछोगे की आपको आनंद कभी मिला?
अगर वो ईमानदारी से बोलेगा तो कहेगा की आप लोग तो हमसे अधिक सुखी हैं। हम तो बहुत दुखी हैं। क्योंकि -
खाना तो सबको दो रोटी है। खरबपति का पेट बड़ा नहीं होता और वो रोटी के अलावा सोना चाँदी नहीं खाता।
वो भगवान् की सृष्टि को बस सजा सकता है। भगवान् मुस्कुराते हैं कि "इसने मेरे पृथ्वी को तो सजा दिया। लेकिन इसको ले तो नहीं जा सकता। ये तो यहीं रहेगा और इसको बनाने में जो मक्कारी की है, उसका दंड अलग भोगेगा।"
एक तो उसने इतनी मेहनत से कमाया। और उसको बाद में भी दंड मिलेगा। रोज़ नींद की गोली खाकर तो सोता है।
तो पहले ये डिसीज़न हो कि इस संसार में आनंद नहीं है। तब करप्शन बंद होगा।
संसार तो ये शरीर चलाने के लिए भगवान् ने बनाया। आनंद तो भगवान् में हैं।
हम दो हैं -
अंदर वाला कौन है ?
जब कोई मर जाता है, उसका शरीर यहीं रह जाता है। सब कहते हैं मेरा शरीर, मेरा मन, मेरी बुद्धि। ये सब मैं नहीं हैं। ये जिसके हैं, वो है अंदर - वो दिखाई नहीं पड़ता। वो मैं कौन है ?
वो मैं भगवान् का अंश है।
और भगवान् क्या हैं ?
आनंदसिंधु।
उसी आनंदसिंधु को हम चाहते हैं। यहाँ ढूंढते हैं, लेकिन नहीं मिल रहा है।
एक लाख, करोड़, एक अरब, माँ, बाप, बीवी। पति, बेटा - तमाम संसार मिलता जा रहा है। बस एक आनंद नहीं मिला। सब सोचते हैं हमारी माँ खराब है, हमारा बाप खराब है, हमारी बीवी खराब है आदि। कोई खराब नहीं है। तुम्हारी बुद्धि खराब है। यहाँ आनंद है ही नहीं, तो मिलेगा कैसे?
भगवान् का अंश है 'मैं'। भगवान् मेरे हैं। ये आनंद का अंश है। भगवान् आनंदसिंधु हैं।
जैसे सब नदियाँ अपने अंशी समुद्र में जाती हैं, दीपक की आग अपने अंशी सूरज की तरफ जाती हैं , एक ढेले की मिट्टी अपने अंशी पृथ्वी के पास जाती है, ऐसे ही -
हमारा यह अंश जीव अपने अंशी भगवान् के पास जाना चाहता है। उनका आनंद चाहता है। और हम इसको दे रहे हैं शरीर का आनंद। इससे तो बीमारी बढ़ेगी, जैसे जलती हुई आग में घी डालने से आग बढ़ती है।
तो अगर मन से भगवान् की भक्ति होती तो मन शुद्ध होता और भगवान् का आनंद मिलता
अगर संसार में मन है तो संसार में जो है वो मिलेगा। संसार तो दुःख, अशांति, अतृप्ति ही देगा।
संसार में सब एक दूसरे से आनंद की आशा करते रहते हैं - सब अपने अपने तिकड़म में लगे हैं कि इससे आनंद मिल जाए। जब किसी के पास आनंद है ही नहीं तो कोई क्या आनंद देगा? सब एक दूसरे को बेवकूफ बनाने में लगे हैं। इसके लिए झूठ, चार-सौ बीस कर करके हम पाप तो कमाते जा रहे हैं लेकिन आनंद नहीं मिल रहा है। क्योंकि यहाँ आनंद है ही नहीं है। यहाँ कि क्या कहें, स्वर्ग का राजा इंद्र भी - ब्राह्मं पदं याचते - वो भी दुखी है क्योंकि वो ब्रह्मा बनना चाहता है।
तो जब ये बुद्धि में पक्का निश्चय हो जाए कि -
इस संसार में आनंद नहीं है। ये शरीर पंचमहाभूत का बना है। इसके लिए पंचमहाभूत का संसार बना है। आत्मा के लिए परमात्मा है। इसलिए इस मन को परमात्मा में लगाओगे तो परमात्मा का आनंद मिलेगा। संसार में लगाओगे तो संसार के पास जो कुछ भी है वो मिलेगा।
तो उपासना या भक्ति जो संसार में होती है वो इन्द्रियों से होती है। मन से नहीं।
भगवान् को सामने खड़ा करके मन से आंसू बहाना होगा।
भगवान् कहाँ हैं? सबके हृदय में हैं। भगवान् इतने दयालु हैं कि अगर वो ये कहेंगे कि मैं मंदिर में रहूंगा तो जिनके पैर नहीं हैं, वो कहेंगे हमको फ्री में भगवत्प्राप्ति कराइए क्योंकि हम मंदिर नहीं जा सकते।
इन आँखों से भगवान् नहीं दिखाई पड़ते। इन कानों से भगवान् के शब्द नहीं सुनाई पड़ते - ये सब तो संसार के लिए है।
भगवान् का काम दिव्य होता है। भगवान् के कानों से उनके शब्द सुनाई पड़ते हैं। भगवान् की आँखों से भगवान् का दर्शन होता है। उनकी बुद्धि से उनका ज्ञान होता है। वो भगवान देते हैं।
लेकिन कब?
जब हमारे 'मन' का कम्पलीट सरेंडर हो जाए। सारे संसार का अटैचमेंट ज़ीरो हो जाए।
अभी तो माँ बाप मेमसाहब पतिदेव आदि पंद्रह बीस लोगों में हमारा अटैचमेंट पक्का बना हुआ है। मरने के बाद अभी की मम्मी बदल जाएगी। कुत्ते-बिल्ली-गधे सब योनियों में हम जा चुके है हर जन्म में अलग-अलग माँ बाप बेटा बीवी - ऐसे अनंत बन चुके। हम अनादिकाल से चल रहे हैं।
तो शरीर से संसार को चलाओ। आत्मा के लिए तो केवल भगवान् हैं।
उनका कोई नाम रख लो, कोई भी रूप बनाओ। वे तैयार हैं। कहीं भी उनका नाम लो। लेकिन मन के साथ करो - उनको सामने खड़ा करो और उनको रोकर पुकारो कि "कृपा दो, अपना दर्शन दो, अपना ज्ञान दो।" संसार न मांगो।
आज ख़ास तौर से भारत में अमुक मंदिर में भीड़ है क्योंकि वहाँ कामना की पूर्ति हो जाती है। पैसा मिलेगा, बेटा नहीं है, बेटा मिल जाएगा।
श्री कृष्ण के समय कौरवों ने निरपराध अभिमन्यु को घेरकर चार सौ बीस से मारा।
उसके साक्षात् मामा - भगवान् श्री कृष्ण।
उसके साक्षात् बाप - अर्जुन जो महापुरुषों में टॉप किए हुए गीताज्ञानी।
उसका ब्याह करने वाले - वेदव्यास - चार लाख श्लोक बनाने वाले भगवान् के अवतार।
लेकिन किसी ने अभिमन्यु को मरने पर बचाया नहीं। सब बैठकर शोक मना रहे हैं। क्या भगवान् या अर्जुन उसको ज़िंदा नहीं सकते थे?
नहीं कर सका कोई।
लेकिन हम लोग पंडित जी को दस हज़ार देते हैं यह सोचकर कि वो एक मंत्र पढ़कर हमारे बच्चे को बचा लेंगे। क्या वो चारों धाम वाला मंदिर हमारे भाग्य की रेखा काट देगी? इम्पॉसिबल।
जब भगवान् नहीं काट सकते - प्रारब्ध के मामले में कोई दखल नहीं देता चाहे वो महापुरुष हो या भगवान् हों। किसी के लिए कोई रियायत नहीं - सब को पाप का दंड भोगना पड़ेगा। न कोई मंदिर न कुछ कर सकता है, न मस्जिद न कोई बाबा जी। सब ठगने की बातें हैं।
इसलिए इन सब धोखों में नहीं पड़ना चाहिए। मन में पक्का ज्ञान बिठा लो कि -
अगर कोई पूछे भगवान् कैसे मिलते हैं?
जब उनसे मिले बिना रहा न जाए, तब मिलते हैं। कोई पाठ पूजा जप तप कुछ नहीं
हमारे देश में 99% महापुरुष बेपढ़े लिखे हुए क्योंकि उनमे तर्क वितर्क कुतर्क नहीं था। धन्ना जाट को एक पत्थर दे दिया और कह दिया इसमें भगवान् यहीं और उसने मान लिया और डट गए। और हम लोग चार अक्षर पढ़ लेने वाले - हर बात पर भगवान् और महापुरुष के क्रियाओं के लिए "ऐसा क्यों-ऐसा क्यों?" में उलझे रह जाते हैं। अपने लिए प्रश्न नहीं करते। तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट है - वो अभी वहाँ नहीं जा सकती। अपने ऊपर पहले लागू करो कि तुम्हारे अनंत जन्म बीत गए हमने अपने प्रभु को क्यों नहीं पाया ?
भगवान् सब के अंदर बैठे हैं और सब जगह रहते हैं - ये सब धर्म कह रहे हैं। कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है। बस इस एक बात को दुनिया में सब मान लें, तो सब करपशन ख़तम, क्योंकि ये डर लगेगा कि मैं पाप की बात सोच रहा हूँ - वो नोट हो जाएगा। मरने के बाद दंड मिलेगा। अगर ये फीलिंग होती हमारे अंदर भगवान् बैठे हैं और मेरे आइडियाज़ को स्वयं नोट करते हैं। वे यह काम किसी संत को नहीं देते। अपने आप नोट करके अपने आप फल देते हैं।
इसलिए मन से भक्ति करने का अभ्यास करें तो मन के द्वारा अच्छे कर्म होंगे। इन्द्रियों की भक्ति से अनंत काल बीत जाए, करप्शन में कोई सुधार नहीं आ सकता।
http://jkp.org.in/live-radio
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
Sadhan Sadhya- Guru Purnima 2025
Read Next
Daily Devotion - Sep 16, 2025 (English)- Narad Bhakti Darshan - Part 6
Yajjñātvā - * Our relationship with Shri Krishna is eternal and everlasting; it is self-established. * The path to realize this relationship is Navadhā Bhakti, the ninefold path of devotion. * The goal is prem (divine love). * What is to be attained is the service of Shri Krishna. So our relationship is only
Daily Devotion - Sep 14, 2025 (English)- Narad Bhakti Darshan - Part 5
Sutra 6 - Yajjñātvā matto bhavati stabdho bhavati ātmārāmo bhavati। Shri Maharaj Ji is explaining 'yajjñātvā' in the sixth sutra. Yajjñātvā - "by knowing Whom", that is, tattvajñāna (philosophical knowledge), which consists of only three aspects - i) sambandh (relationship) ii) abhidheya (means) iii) prayojan (goal)
Daily Devotion - Sep 12, 2025 (English)- Narad Bhakti Darshan - Part 4
Nārad Bhakti Darshan - Next Part So far, Shri Maharaj Ji has explained the first five sutras of Nārad Bhakti Darshan. Now he is explaining the sixth sutra: Sutra 6 - Yajjñātvā matto bhavati stabdho bhavati ātmārāmo bhavati (i) Yajjñātvā - Upon knowing Whom, a soul becomes a saint, a
Daily Devotion - Sep 10, 2025 (English)- Narad Bhakti Darshan - Part 3
Nārad Bhakti Darshan - Next Part - (i) Yat prāpya na kiṁcid vāñchati (continued) However, Shri Maharaj Ji's opinion is that although desires related to God are not condemnable, they are not praiseworthy either. Why so? Because desire, whether worldly or spiritual, is dangerous for the sādhak. How