भक्ति ज्ञान वैराग्य गोविंद राधे। इन तीन में कैसा क्रम है बता दे॥
भक्ति, ज्ञान और वैराग्य - इनका आपस में क्या क्रम है?
अनादिकाल से हमारा ये डिसीज़न रहा है कि -
"संसार में सुख है। हमको नहीं मिला, हमारे भाग्य में नहीं है। हमारा बाप खराब है, माँ खराब है, बीवी खराब है। लेकिन संसार में सुख है - भागो, चलते रहो, एक दिन मिलेगा।"
इसी आशा में अनंत जन्म समाप्त हो गए।
तो हमको करना क्या है?
इसका समाधान श्री महाराज जी बता रहे हैं -
शास्त्र-वेद कहते हैं कि तुम भक्ति करो बस, और कुछ मत करो। भक्ति मन से करनी है। ये 'मूल मंत्र' कभी मत भूलना - वैराग्य, ज्ञान या भक्ति - सब मन से सम्बन्ध रखती हैं, बाहर से नहीं। बहिरंग त्याग से 0/100 मिलेगा, बल्कि और हानि होगी। क्योंकि उससे ये अहंकार हो जाएगा कि हम त्यागी हैं, और दस बेवकूफ उसको घेरे रहेंगे कि ये बड़े सिद्ध महात्मा हैं पेड़ के नीचे रहते हैं, आदि। लेकिन उसका मन गलत चिंतन में लगा रहता है, और एक दिन पता चलता है कि वो लोगों से दुगुना चौगुना का नाटक करके करोड़ों रुपए लेकर भाग गया। तो बहिरंग त्याग, त्याग नहीं है। बहिरंग भक्ति - केवल इन्द्रियों से जप-कीर्तन आदि - भक्ति नहीं है। और बहिरंग ज्ञान - थियरिटिकल, गीता-पाठ, रामायण-पाठ आदि - वास्तविक ज्ञान नहीं है।
वास्तविक भक्ति, वैराग्य और ज्ञान - तीनों का संबंध अंतःकरण से है। इस बात को सब लोग रट लो। बाहर से, यानी केवल इन्द्रियों से कुछ काम नहीं चलेगा - न ज्ञान, न वैराग्य, न भक्ति। यह सब तुम बहुत कर चुके हो। तुलसीदास जी ने लिखा है -
तप, तीरथ, उपवास, मख (यज्ञ) जेहि जो रुचै करो सो।
पायेहि पै जानिबो करम-फल भरि-भरि बेद परोसो॥
वेद ने यज्ञ, तपश्चर्या आदि की बड़ी प्रशंसा की है, लेकिन मरने के बाद पता चलेगा कि क्या फल मिला - जब ज़ीरो मिलेगा। तब पूछा जाएगा - "तुमने क्या किया?" अगर तुम कहोगे, "हमने इतना जप किया, इतना पाठ किया," तो पूछा जाएगा - "तुम्हें यह करने के लिए किसने कहा?" अगर कहोगे - "हमारे गुरु ने कहा।" तो बताया जाएगा कि "तुम्हारा गुरु अँधा था, और तुम्हें भी ले डूबा। गलत गुरु के पास क्यों गए?" और अगर कहोगे "मुझे क्या मालूम?" तो कहा जाएगा कि "तुम्हें मालूम होना चाहिए था। इसकी ज़िम्मेदारी तुम्हारी है।"
सिद्धांत न जानने के कारण ही हम गड़बड़ करते हैं।
इसलिए शास्त्र-वेद कहते हैं - तुम भक्ति करो। ज्ञान और वैराग्य - दोनों भक्ति-माँ के पुत्र हैं। अर्थात् ये अपने-आप पैदा होते जाएँगे। और भक्ति मन को करनी है। लेकिन मन तो संसार में आसक्त है।
इसलिए सबसे पहले थियरी, यानी तत्त्वज्ञान को समझो - भगवान् क्या है, जीव क्या है, माया क्या है, संसार क्या है, सुख-दुःख किसे कहते हैं, भगवान् कौन हैं, भगवान् से हमारा क्या सम्बन्ध है, उनमें क्या-क्या गुण हैं?
संसार में परिश्रम करने पर भी सफलता का कोई चैलेंज नहीं कर सकता - जैसे मेहनत करने पर भी व्यापार में घाटा, ब्याह करने पर भी बच्चा नहीं पैदा हुआ आदि। लेकिन भगवान् के मामले में हम चैलेंज कर सकते हैं। क्योंकि भगवान् -
- सर्वज्ञ हैं,
- सब के अंदर बैठे हैं,
- सर्वशक्तिमान हैं,और
- सर्वान्तर्यामी हैं।
इसलिए मन से की गई हमारी कोई भी क्रिया बेकार नहीं जाएगी। वे सब नोट करते हैं। वहाँ न धोखा है, न यह प्रश्न कि उन्हें पता ही नहीं चला।
शास्त्र कहते हैं -
धावन् 'निमील्य वा नेत्रे' न स्खलेन् न पतेदिह।
आँख मूंदकर दौड़ो, न गिरोगे, न फ़िसलोगे। ऐसा है भक्ति मार्ग, क्योंकि भगवान् सँभालते हैं, बशर्ते कि मन से भक्ति करो, तब संभालेंगे। इन्द्रियों की भक्ति को तो वे नोट ही नहीं करते।
भागवत में शौनकादि परमहंसों ने सूत जी से प्रश्न किया था -
पुंसामेकान्तत: श्रेयस्तन्मे शंसितुमर्हसि।
महाराज ! श्रेय क्या है? सबसे बड़ा, 'पूर्ण रूप से' कल्याण का मार्ग कौन-सा है? ज्ञान, वैराग्य या भक्ति?
सूत जी ने उत्तर दिया -
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे।
बस एक कल्याण का मार्ग है - श्री कृष्ण की भक्ति।
आगे उन्होंने कहा -
ज्ञान और वैराग्य के चक्कर में मत पड़ना, क्योंकि -
वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजित:।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम्॥
यानी ज्ञान और वैराग्य भक्ति की लिमिट के अनुसार होते जाएँगे। जितने परसेंट भक्ति, उतने परसेंट वैराग्य और उतने परसेंट भगवान् की कृपा, इसलिए उतने ही पर्सेंट भगवान् का ज्ञान। बिलकुल नपा तुला है, बुद्धि लगाने की ज़रूरत नहीं।
भक्ति करने से तीन चीज़ होती हैं -
- भक्ति
- ज्ञान
- वैराग्य।
इसको ऐसे समझो -
एक तराज़ू है। एक पलड़े में संसार की आसक्ति का 10 किलो वज़न है, दूसरा पलड़ा खाली है। इसलिए एक पलड़ा नीचे बैठा है और दूसरा ऊपर।
अब हमने पहले पलड़े से एक किलो उठाकर दूसरे में रखा। यह समझ बनाकर कि जो दिव्यानंद हम चाहते हैं, वह संसार में नहीं, भगवान् में है। बार-बार चिंतन करके यह डिसीज़न पक्का किया। पहले पलड़े से जो एक किलो कम हुआ, उसी को वैराग्य कहते हैं।
ऐसे करते-करते जब दोनों पलड़ों में पाँच-पाँच किलो हो गया, तो पलड़े बराबर हो गए।
अब इसके बाद जब हमने पहले पलड़े से एक किलो निकालकर दूसरे में रखा, तो दूसरा पलड़ा नीचे जाने लगा। इसे कहते हैं 'सहज वैराग्य' और 'सहज अनुराग।' यानी मन अपने-आप भगवान् में लगने लगेगा और संसार से अपने-आप हटने लगेगा। अब कोई संसारी बात करे तो अच्छा नहीं लगेगा। चाहे कोई भी हो, वह कोई बहाना बनाकर वहाँ से उठ जाएगा। जब लोग समझ लेंगे कि यह सुनता ही नहीं, तो वे अपने-आप अलग हो जाएँगे। यह सब स्वाभाविक हो जाता है। फिर अगर किसी दिन किसी कारण से भगवान् का स्मरण न हो पाए, तो वह बेचैन हो जाता है और सोचता है - चलो रात को ही कर लें। जैसे लोभी व्यक्ति धन कमाने के बारे में सोचता रहता है।
भक्ति में भगवान् भीतर बैठकर नोट करते हैं। इसलिए वे कृपा करके हमारी भक्ति के अनुसार अपना ज्ञान कराते हैं - ददामि बुद्धियोगं तं।
तो कन्क्लूज़न ये है -
- सबसे पहले थियरी की नॉलेज - तत्त्वज्ञान ज़रूरी है।
- अब केवल थियरी की नॉलेज है - अब खतरा है। जब तक पहले पलड़े में से 50% से ज़्यादा दूसरे पलड़े में न आ जाए - यानी जब तक डिसीज़न पक्का न हो जाए - तब तक हमें बहुत सावधान रहना होगा। वरना अगर कुसंग में पड़ गए तो फिर ये सोचने लगोगे "ये सब फालतू है, पैसा कमाओ।"
मन को संसार से हटाना पड़ेगा। यह मत कहना कि "भगवान् में मेरा मन नहीं लगता।" लगना नैचुरल अवस्था है। पहले भगवान् में मन 'लगाना पड़ेगा।' जब दूसरा पलड़ा 50% से ज़्यादा भारी हो जाएगा, तब मन अपने-आप लगने लगेगा।
इसलिए पहले भगवान् में मन लगाने का अभ्यास करना होगा - ये भावार्थ है।
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
Shraddha - Hindi
Tattvajnan ka Mahatva - Hindi
भक्ति ज्ञान वैराग्य गोविंद राधे। इन तीन में कैसा क्रम है बता दे॥
भक्ति, ज्ञान और वैराग्य - इनका आपस में क्या क्रम है?
अनादिकाल से हमारा ये डिसीज़न रहा है कि -
"संसार में सुख है। हमको नहीं मिला, हमारे भाग्य में नहीं है। हमारा बाप खराब है, माँ खराब है, बीवी खराब है। लेकिन संसार में सुख है - भागो, चलते रहो, एक दिन मिलेगा।"
इसी आशा में अनंत जन्म समाप्त हो गए।
तो हमको करना क्या है?
इसका समाधान श्री महाराज जी बता रहे हैं -
शास्त्र-वेद कहते हैं कि तुम भक्ति करो बस, और कुछ मत करो। भक्ति मन से करनी है। ये 'मूल मंत्र' कभी मत भूलना - वैराग्य, ज्ञान या भक्ति - सब मन से सम्बन्ध रखती हैं, बाहर से नहीं। बहिरंग त्याग से 0/100 मिलेगा, बल्कि और हानि होगी। क्योंकि उससे ये अहंकार हो जाएगा कि हम त्यागी हैं, और दस बेवकूफ उसको घेरे रहेंगे कि ये बड़े सिद्ध महात्मा हैं पेड़ के नीचे रहते हैं, आदि। लेकिन उसका मन गलत चिंतन में लगा रहता है, और एक दिन पता चलता है कि वो लोगों से दुगुना चौगुना का नाटक करके करोड़ों रुपए लेकर भाग गया। तो बहिरंग त्याग, त्याग नहीं है। बहिरंग भक्ति - केवल इन्द्रियों से जप-कीर्तन आदि - भक्ति नहीं है। और बहिरंग ज्ञान - थियरिटिकल, गीता-पाठ, रामायण-पाठ आदि - वास्तविक ज्ञान नहीं है।
वास्तविक भक्ति, वैराग्य और ज्ञान - तीनों का संबंध अंतःकरण से है। इस बात को सब लोग रट लो। बाहर से, यानी केवल इन्द्रियों से कुछ काम नहीं चलेगा - न ज्ञान, न वैराग्य, न भक्ति। यह सब तुम बहुत कर चुके हो। तुलसीदास जी ने लिखा है -
तप, तीरथ, उपवास, मख (यज्ञ) जेहि जो रुचै करो सो।
पायेहि पै जानिबो करम-फल भरि-भरि बेद परोसो॥
वेद ने यज्ञ, तपश्चर्या आदि की बड़ी प्रशंसा की है, लेकिन मरने के बाद पता चलेगा कि क्या फल मिला - जब ज़ीरो मिलेगा। तब पूछा जाएगा - "तुमने क्या किया?" अगर तुम कहोगे, "हमने इतना जप किया, इतना पाठ किया," तो पूछा जाएगा - "तुम्हें यह करने के लिए किसने कहा?" अगर कहोगे - "हमारे गुरु ने कहा।" तो बताया जाएगा कि "तुम्हारा गुरु अँधा था, और तुम्हें भी ले डूबा। गलत गुरु के पास क्यों गए?" और अगर कहोगे "मुझे क्या मालूम?" तो कहा जाएगा कि "तुम्हें मालूम होना चाहिए था। इसकी ज़िम्मेदारी तुम्हारी है।"
सिद्धांत न जानने के कारण ही हम गड़बड़ करते हैं।
इसलिए शास्त्र-वेद कहते हैं - तुम भक्ति करो। ज्ञान और वैराग्य - दोनों भक्ति-माँ के पुत्र हैं। अर्थात् ये अपने-आप पैदा होते जाएँगे। और भक्ति मन को करनी है। लेकिन मन तो संसार में आसक्त है।
इसलिए सबसे पहले थियरी, यानी तत्त्वज्ञान को समझो - भगवान् क्या है, जीव क्या है, माया क्या है, संसार क्या है, सुख-दुःख किसे कहते हैं, भगवान् कौन हैं, भगवान् से हमारा क्या सम्बन्ध है, उनमें क्या-क्या गुण हैं?
संसार में परिश्रम करने पर भी सफलता का कोई चैलेंज नहीं कर सकता - जैसे मेहनत करने पर भी व्यापार में घाटा, ब्याह करने पर भी बच्चा नहीं पैदा हुआ आदि। लेकिन भगवान् के मामले में हम चैलेंज कर सकते हैं। क्योंकि भगवान् -
इसलिए मन से की गई हमारी कोई भी क्रिया बेकार नहीं जाएगी। वे सब नोट करते हैं। वहाँ न धोखा है, न यह प्रश्न कि उन्हें पता ही नहीं चला।
शास्त्र कहते हैं -
धावन् 'निमील्य वा नेत्रे' न स्खलेन् न पतेदिह।
आँख मूंदकर दौड़ो, न गिरोगे, न फ़िसलोगे। ऐसा है भक्ति मार्ग, क्योंकि भगवान् सँभालते हैं, बशर्ते कि मन से भक्ति करो, तब संभालेंगे। इन्द्रियों की भक्ति को तो वे नोट ही नहीं करते।
भागवत में शौनकादि परमहंसों ने सूत जी से प्रश्न किया था -
पुंसामेकान्तत: श्रेयस्तन्मे शंसितुमर्हसि।
महाराज ! श्रेय क्या है? सबसे बड़ा, 'पूर्ण रूप से' कल्याण का मार्ग कौन-सा है? ज्ञान, वैराग्य या भक्ति?
सूत जी ने उत्तर दिया -
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे।
बस एक कल्याण का मार्ग है - श्री कृष्ण की भक्ति।
आगे उन्होंने कहा -
ज्ञान और वैराग्य के चक्कर में मत पड़ना, क्योंकि -
वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजित:।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम्॥
यानी ज्ञान और वैराग्य भक्ति की लिमिट के अनुसार होते जाएँगे। जितने परसेंट भक्ति, उतने परसेंट वैराग्य और उतने परसेंट भगवान् की कृपा, इसलिए उतने ही पर्सेंट भगवान् का ज्ञान। बिलकुल नपा तुला है, बुद्धि लगाने की ज़रूरत नहीं।
भक्ति करने से तीन चीज़ होती हैं -
इसको ऐसे समझो -
एक तराज़ू है। एक पलड़े में संसार की आसक्ति का 10 किलो वज़न है, दूसरा पलड़ा खाली है। इसलिए एक पलड़ा नीचे बैठा है और दूसरा ऊपर।
अब हमने पहले पलड़े से एक किलो उठाकर दूसरे में रखा। यह समझ बनाकर कि जो दिव्यानंद हम चाहते हैं, वह संसार में नहीं, भगवान् में है। बार-बार चिंतन करके यह डिसीज़न पक्का किया। पहले पलड़े से जो एक किलो कम हुआ, उसी को वैराग्य कहते हैं।
ऐसे करते-करते जब दोनों पलड़ों में पाँच-पाँच किलो हो गया, तो पलड़े बराबर हो गए।
अब इसके बाद जब हमने पहले पलड़े से एक किलो निकालकर दूसरे में रखा, तो दूसरा पलड़ा नीचे जाने लगा। इसे कहते हैं 'सहज वैराग्य' और 'सहज अनुराग।' यानी मन अपने-आप भगवान् में लगने लगेगा और संसार से अपने-आप हटने लगेगा। अब कोई संसारी बात करे तो अच्छा नहीं लगेगा। चाहे कोई भी हो, वह कोई बहाना बनाकर वहाँ से उठ जाएगा। जब लोग समझ लेंगे कि यह सुनता ही नहीं, तो वे अपने-आप अलग हो जाएँगे। यह सब स्वाभाविक हो जाता है। फिर अगर किसी दिन किसी कारण से भगवान् का स्मरण न हो पाए, तो वह बेचैन हो जाता है और सोचता है - चलो रात को ही कर लें। जैसे लोभी व्यक्ति धन कमाने के बारे में सोचता रहता है।
भक्ति में भगवान् भीतर बैठकर नोट करते हैं। इसलिए वे कृपा करके हमारी भक्ति के अनुसार अपना ज्ञान कराते हैं - ददामि बुद्धियोगं तं।
तो कन्क्लूज़न ये है -
मन को संसार से हटाना पड़ेगा। यह मत कहना कि "भगवान् में मेरा मन नहीं लगता।" लगना नैचुरल अवस्था है। पहले भगवान् में मन 'लगाना पड़ेगा।' जब दूसरा पलड़ा 50% से ज़्यादा भारी हो जाएगा, तब मन अपने-आप लगने लगेगा।
इसलिए पहले भगवान् में मन लगाने का अभ्यास करना होगा - ये भावार्थ है।
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