वेदों, पुराणों, गीता, भागवत, रामायण में सर्वत्र भगवान् ने हज़ार बार कहा - एव माने 'ही', यानी भगवान् कहते हैं केवल मुझमे ही मन लगा दे। मुझसे ही प्यार कर।
लेकिन मन हठी है। ये कहता है, "हम 'भी' लगाएँगे"। भगवान् से भी प्यार है संसार से भी प्यार है। दोनों हाथ से लड्डू खाना चाहता है। लेकिन एक प्रकाश है और एक अंधकार है। दोनों एक ही स्थान पर नहीं रह सकते। भगवान् और माया ये दोनों विरोधी तत्त्व हैं।
कृष्ण-सूर्य सम माया हय अन्धकार। जाहाँ सूर्य, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।
भगवान् और माया में इतना बड़ा विरोध है, जितना बड़ा प्रकाश और अंधकार में होता है। कहीं भी प्रकाश और अंधकार एक स्थान पर नहीं रह सकते।
विलज्जमानया यस्य स्थातुमीक्षापथेऽमुया (भागवत) - माया उनके सामने खड़ी नहीं हो सकती।
ये 'ही' और 'भी' का झगड़ा अनादिकाल से चल रहा है। अनंत जन्म बीत गए। न भगवान् झुकते हैं, कि चलो ये 'भी' कह रहा है, भी ही मान लो। न जीव झुकता है कि चलो इनकी ज़िद है कि 'ही' लगो दो, तो लगा देते हैं। दोनों अड़े हैं।
और उसका परिणाम क्या है?
जीव 84 लाख में घूम रहा है और उसके साथ-साथ भगवान् भी घूम रहे हैं। एक (जीव) रोते हुए घूम रहा है और एक (भगवान्) हँसते हुए घूम रहा है - क्योंकि भगवान् के पास तो योगमाया का पॉवर है, उनके पास ह्लादिनी शक्ति है। एक क्षण को भी भगवान् जीव को छोड़ते नहीं हैं। नुकसान जीव का हो रहा है, चौरासी लाख में घूमकर दुःख भोगते हुए। भगवान् का कोई नुकसान है नहीं, जीव भले ही अपने ज़िद पर अड़े रहे। संसार में सब जगह कामना आने पर हम सर झुकाते हैं और कोई न कोई कामना तो हम बनाएँगे ही। जब तक अपरिमेय अपौरुषेय दिव्यानंद न मिल जाएगा, बिना कामना बनाए कोई एक सेकंड को जीवित ही नहीं रह सकता। जिसकी कामना है हम उसके गुलाम हैं। गुलामी में तो दुःख ही है। हम संसार के सामान और संसार के लोगों से प्यार करते हैं, जो बदलते रहते हैं। इसके स्थान पर भगवान् के सामान (उनके नाम, रूप, लीला, गुण, धाम) और भगवान् के भक्त, यानी हरि-गुरु से ही प्यार करें तो हमारा काम बन जाए। भगवान् हमारे ऐसे रिश्तेदार हैं जो सदा एक से रहेंगे, बदलेंगे नहीं।
हमारे हठ से हमें ही दुःख मिल रहा है और आज तक न कोई साधन बना, न ही कोई स्पिरिचुअल पॉवर भी अब तक ऐसी बन सकी कि हमारा संसार सदा बना रहे। न ही भविष्य में ऐसे हो सकेगा। तो हम किस आशा पर हठ किए बैठे हैं? तो चाहे आज 'ही' लगाओ या करोड़ों कल्प बाद 'ही' लगाओ। इसलिए हमें हठ छोड़ना होगा नहीं तो दुःख भोगना पड़ेगा। अभी मान लो तो ज़्यादा अच्छा है क्योंकि हज़ारों जन्मों बाद भी मानव देह नहीं मिला करता - ये 'सर्गेषु' यानी करोड़ों कल्पों में कभी कभी मानव देह मिलता है। और जब मिलता है तब फिर कोई संत मिलेंगे, हम समझेंगे भी और उधार कर देंगे और फिर चूक जाएँगे - जैसे अब तक चलता आ रहा है। इसलिए अब हमें नींद से उठना है और 'भी' की जगह 'ही' लगाना है। बस इतनी सी बात है।
इस विषय से संबंधित जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अनुशंसित पुस्तकें:
Bhagavad Gita Jnana - Ananya Bhakti - Hindi
वेदों, पुराणों, गीता, भागवत, रामायण में सर्वत्र भगवान् ने हज़ार बार कहा - एव माने 'ही', यानी भगवान् कहते हैं केवल मुझमे ही मन लगा दे। मुझसे ही प्यार कर।
लेकिन मन हठी है। ये कहता है, "हम 'भी' लगाएँगे"। भगवान् से भी प्यार है संसार से भी प्यार है। दोनों हाथ से लड्डू खाना चाहता है। लेकिन एक प्रकाश है और एक अंधकार है। दोनों एक ही स्थान पर नहीं रह सकते। भगवान् और माया ये दोनों विरोधी तत्त्व हैं।
कृष्ण-सूर्य सम माया हय अन्धकार। जाहाँ सूर्य, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।
भगवान् और माया में इतना बड़ा विरोध है, जितना बड़ा प्रकाश और अंधकार में होता है। कहीं भी प्रकाश और अंधकार एक स्थान पर नहीं रह सकते।
विलज्जमानया यस्य स्थातुमीक्षापथेऽमुया (भागवत) - माया उनके सामने खड़ी नहीं हो सकती।
ये 'ही' और 'भी' का झगड़ा अनादिकाल से चल रहा है। अनंत जन्म बीत गए। न भगवान् झुकते हैं, कि चलो ये 'भी' कह रहा है, भी ही मान लो। न जीव झुकता है कि चलो इनकी ज़िद है कि 'ही' लगो दो, तो लगा देते हैं। दोनों अड़े हैं।
और उसका परिणाम क्या है?
जीव 84 लाख में घूम रहा है और उसके साथ-साथ भगवान् भी घूम रहे हैं। एक (जीव) रोते हुए घूम रहा है और एक (भगवान्) हँसते हुए घूम रहा है - क्योंकि भगवान् के पास तो योगमाया का पॉवर है, उनके पास ह्लादिनी शक्ति है। एक क्षण को भी भगवान् जीव को छोड़ते नहीं हैं। नुकसान जीव का हो रहा है, चौरासी लाख में घूमकर दुःख भोगते हुए। भगवान् का कोई नुकसान है नहीं, जीव भले ही अपने ज़िद पर अड़े रहे। संसार में सब जगह कामना आने पर हम सर झुकाते हैं और कोई न कोई कामना तो हम बनाएँगे ही। जब तक अपरिमेय अपौरुषेय दिव्यानंद न मिल जाएगा, बिना कामना बनाए कोई एक सेकंड को जीवित ही नहीं रह सकता। जिसकी कामना है हम उसके गुलाम हैं। गुलामी में तो दुःख ही है। हम संसार के सामान और संसार के लोगों से प्यार करते हैं, जो बदलते रहते हैं। इसके स्थान पर भगवान् के सामान (उनके नाम, रूप, लीला, गुण, धाम) और भगवान् के भक्त, यानी हरि-गुरु से ही प्यार करें तो हमारा काम बन जाए। भगवान् हमारे ऐसे रिश्तेदार हैं जो सदा एक से रहेंगे, बदलेंगे नहीं।
हमारे हठ से हमें ही दुःख मिल रहा है और आज तक न कोई साधन बना, न ही कोई स्पिरिचुअल पॉवर भी अब तक ऐसी बन सकी कि हमारा संसार सदा बना रहे। न ही भविष्य में ऐसे हो सकेगा। तो हम किस आशा पर हठ किए बैठे हैं? तो चाहे आज 'ही' लगाओ या करोड़ों कल्प बाद 'ही' लगाओ। इसलिए हमें हठ छोड़ना होगा नहीं तो दुःख भोगना पड़ेगा। अभी मान लो तो ज़्यादा अच्छा है क्योंकि हज़ारों जन्मों बाद भी मानव देह नहीं मिला करता - ये 'सर्गेषु' यानी करोड़ों कल्पों में कभी कभी मानव देह मिलता है। और जब मिलता है तब फिर कोई संत मिलेंगे, हम समझेंगे भी और उधार कर देंगे और फिर चूक जाएँगे - जैसे अब तक चलता आ रहा है। इसलिए अब हमें नींद से उठना है और 'भी' की जगह 'ही' लगाना है। बस इतनी सी बात है।
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